शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015

भूत बिल्ली

अन्धेरा बढ़ चला है और इस वक़्त इस मेरे घर के इस विशाल आँगन में लगी सारी सोडियम लाइट्स रौशन होकर किसी दिन का सा मंज़र पैदा कर देती हैं...
दरमियान में खिली रात की रानी में मौसम के चलते कुछ गिने चुने ही आ सके फूलों पर पड़ती इनकी तेज़ रौशनी लगता है मानो कई नन्हे सितारों पर रौशन सूरज अपनी छटा बिखेर रहा है.....

मैं इसी दरख्त के पास आरामकुर्सी पड़ी पाकर बैठ गया था,कुछ देर में चाय भी मिल गयी, अम्मी को पता होता है कि यह मेरी चाय का वक़्त है,लिहाज़ा बिन कहे मिल जाया करती है, सामने छत की मुंडेर पर कहीं से दो फख्ताएं आकर बैठी हुई थीं, अमूमन परिंदे इस वक़्त अपने अपने घोंसलों में आराम कर रहे होते हैं लेकिन ना जाने क्यों यह जोड़ा अभी तक बाहर ही मौजूद था और छत की मुंडेर पर आके बैठ गया था, अपनी आवाज़ में चहचहाते हुए, फाख्ता की आवाज़ बिलकुल ऐसी होती है जैसे किसी इंसान की हंसी, इसलिए इसे लाफिंग डोव भी कहा जाता है...

पुराने ज़माने में जब शाम ढ़ले किसी सुनसान जगह पर झुण्ड में फख्ताएं बोलतीं थीं तो लोगों को अक्सर भूत प्रेत का भ्रम हो जाया करता था,मुहल्ले के आसपास के बड़े बूढ़े कई किस्से भी सुनाया करते ,

जैसे एक किस्सा किसी खूबसूरत औरत का था जो ज़ोर ज़ोर से हंसा करती थी,उसकी आवाज़ उसके पड़ोस में रहने वाले एक पहुंचे हुए बाबा को परेशान करती और उनकी इबादत में खलल पड़ता,औरतों की आवाज़ घर से बाहर नही आना चाहिए लिहाज़ा एक दिन उस बाबा ने नाराज़ होकर उस औरत को परिंदा बना दिया...
बचपन में हम समझ न पाते की खूबसूरत औरत के हसने की आवाज़ का इबादत में खलल से क्या ताल्लुक़ था... अगर वो औरत ज़ोर से हसती थी तो उस बाबा को इससे क्या दिक़्क़त हो सकती थी और अगर औरत की आवाज़ घर के बाहर आ जाये तो इससे मआशरे को क्या नुकसान हो सकता था...घरों में पली गाय भैंसे जब रंभाती हैं तो उनकी आवाज़ दूर तक गूंजा करती है... उससे किसी को कोई एतेराज़ न होती लेकिन घर में रहने वाली औरत की आवाज़ अगर बाहर चली जाए तो मज़हब पर खतरा मंडराने लगता है...बहरहाल हमारा बालमन उस वक़्त तक यह अजीब सा लॉजिक समझ नहीं पाता और न कभी हमारे घर में इस तरह का माहौल होने के चलते इसपर कभी बड़ों के मुंह से कोई चर्चा सुनने को मिलती कि इसके पीछे क्या तर्क हो सकता था...लिहाज़ा बचपन की कई पहेलियों की तरह ये पहेली भी अनसुलझी रह गयी...

हाँ लेकिन इस भूत प्रेत के भ्रम के लिए फाख्ता अकेली ज़िम्मेवार नहीं है,अक्सर कुछ अजीब हालात भी इसके लिए ज़िम्मेदार होते हैं... कैसे ? वो मैं बताता हूँ, ये तक़रीबन बारह साल क़ब्ल की बात है, वेस्ट इंडीज में कोई सीरीज चल रही थी, इंडिया सेमिफाइनल तक पहुँच चुकी थी,उस वक़्त तक मैच फिक्सिंग जैसे केस सामने नही आये थे लिहाज़ा हमारी क्रिकेट में रूचि बनी हुई थी, अम्मी तो सो चुकी थी लेकिन हम और पापा जाग रहे थे, रात का लगभग एक बजा था और चाय का तीसरा दौर चल रहा था । तभी अचानक दरवाज़े पर धड़ धड़ की आवाज़ सुनाई दी, जैसे बाहर से कोई दरवाज़े पर ज़ोर ज़ोर से हाथ मार रहा हो, पापा और मैं चौंके , इस वक़्त इतनी रात को कौन हो सकता है...

हालांकी पापा के सक्रीय राजनिति में होने के चलते अक्सर रात बिरात लोगों का आना जाना होता रहता था लेकिन फिर दरवाज़े के बाहर कॉल बेल लगी हुई थी, और दरवाज़ा पीटने का अंदाज़ भी कुछ अजीब सा था....मैंने दरवाज़ा खोलकर देखना चाहा कि कौन है लेकिन पापा ने रोक दिया...वो खुद गए और पहले दरवाज़ा खोलने के बजाए मैजिक ऑय से देखना चाहा की कौन है...लेकिन सामने कोई नज़र ना आया...मैंने भी झाँका लेकिन सामने बल्ब की तेज़ रौशनी होने के बावजूद कोई नज़र ना आता था...

हम बाप बेटे दोनों अंधविश्वास से सख्त चिढ़ते थे लेकिन फिर भी उस रात बड़ी अजीब स्थिति पैदा हो गयी थी...यानी दरवाज़ा रह रह कर धड़ धड़ बोल रहा था लेकिन सामने कोई दिखाई ना देता था...हम दोनों अब्बा बेटे क्रिकेट भूल कर एक दूसरे को ताक रहे थे कि अब क्या किया जाये...दरवाज़े की आवाज़ में कोई फर्क न था और रह रह कर थोड़ी थोड़ी देर पर आवाज़ आये जाती थी...

पापा ने दरवाज़े के पास लगी खिड़की खोली,और उससे झांक कर देखा कहीं ऐसा तो नही कि कोई दरवाज़ा बजाता हो और फिर मैजिक ऑय के सामने से हट जाता हो...लेकिन खिड़की से झाँकने पर भी कोई न दिखा और आवाज़ बदस्तूर जारी रही...

मैंने पुलिस में कॉल करने की सलाह दी ही थी कि इतने में पापा की नज़र खिड़की से झांकते हुए दरवाज़े की चौखट पर पड़ गयी, देखा तो वहां हमारी रोज़ी खड़ी हुई थी और अपने अगले पैरों से लगातार दरवाज़े को हिला रही थी...रोज़ी हमारी हट्टी कट्टी पर्शियन बिल्ली थी जो उस रात ना जाने कैसे घर के बाहर निकल गयी थी और इधर उधर आवारगी करने के बाद वापस अंदर घुसने का रास्ता तलाश कर रही थी ,क्रिकेट के चक्कर में हमें रोज़ी का ख्याल भी न रहा जो अक्सर घर के बाहर निकल इधर उधर घुमक्कडी कर लिया करती थी

दरवाज़ा चूँकि लोहे का था इसलिए उसका नाज़ुक सा धक्का भी तेज़ आवाज़ पैदा करने के लिए पर्याप्त था, पापा ने दरवाज़ा खोला, रोज़ी दौड़कर अंदर आई और सोफे पर अपनी निर्धारित जगह कूद कर लेट गयी...पापा और मैं वापस अंदर आये और फिर जब थोड़ी देर में हमारी आँखे मिली तो अपनी अपनी जगह बैठ हम काफी देर तक हसते रहे.....

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