रविवार, 26 अप्रैल 2015

मेरी काल्पनिक प्रेयसि

मेरी काल्पनिक प्रेयसि
सुबह जगाती है मुझे
अपनी आवाज़ के
नर्म साज़ों से
मुझे बहलाती हुई
अपने इक़रार के
पुरअम्न नाज़ों से
टूट कर चाहते हुए
मुझको दिलासे देती
जी भर वो प्यार के
शिकवे भी सुनाती है
फिर नशीली शब् को
सिमटती हुई सी
समा जाती है
मेरे सीने में कहीं
खो सी जाती है
और फिर बज़रिये
आँखों के रास्ते से
दिल में उतर जाती है
कहीं खो सी जाती है
मेरी काल्पनिक प्रेयसि फिर
सुबह जगाती है मुझे...

~इमरान~

आखिर उल्लू कौन ?

पता नही उल्लू का नाम उल्लू किसने रखा होगा,रखा भी तो यह नाम आगे चलकर मूर्खता का प्रतीक कैसे बन गया...लेकिन मुझे तो यह एक बेहद शानदार और खूबसूरत परिंदा लगता है । मेरे घर में अक्सर मुंडेरों पर छत पर या बगीचे में कभी कभी दिख जाया करता है... इसका अन्य परिंदों की तुलना में बड़ा और भारी शरीर, तीखी नुकीली चोंच,रहस्यमयी आँखें मुझे बहुत आकर्षित करती हैं ।

अगर अपने कभी इस जानवर को नज़दीक से देखा हो तो आप खुद इसकी सुंदरता की तारीफ किये बिना नही रह सकेंगे । क़ुदरत के इस नायाब नमूने को उड़ते हुए देखना तो अलग ही अनुभव होता है...यह बिलकुल धीमे और एक शाही से अंदाज़ में उड़ता है और उस वक़्त यह बेहद कम बार ही पंख फड़फड़ाता है ।

लेकिन बदकिस्मती ! अन्धविश्वास के धनी हमारे देश में इस सुंदर जीव को "मनहूस" समझा जाता है और इसकी घर में या आसपास मौजूदगी को कई जगह अशुभ माना जाता है जिसके चलते लोग अक्सर इसे मार भी देते हैं या इसका आशियाना उजाड़ देते हैं ।

विदेशों में तो कई जगह लोग इसे बाक़ायदा अपने घरों में पालते हैं और प्रशिक्षित भी किया जाता है । ठीक उसी तरह जैसे भारत में लोग शिकरे (यानि बाज़) को पालते और प्रशिक्षित करते हैं, लेकिन जैसा की मैंने देखा उसे पालने और ट्रेन करने की जो विधि है वो बड़ी क्रूर और पीड़ादायक होती है।

पहले तो इस पक्षी को पकड़ कर किसी पिंजरे में बन्द कर दिया जाता है और फिर कोई नशीली दवा खिलाकर इसे मूर्छित कर देते हैं,उसके बाद जो होता है उसे पढ़कर आपके रोंगटे खड़े हो जायेंगे ,इसकी दोनों आँखों को पलको से आपस में मिलाकर सुई से बाक़ायदा सिलाई कर दी जाती है, तत्पश्चात पंद्रह बीस दिनों तक हाथ पे एक मोटे चमड़े का दास्ताना पहनकर इसे बांह पर बैठने का अभ्यास कराया जाता है, इस दौरान इसे नशे का हल्का डोज़ लगातार देते रहते हैं जिससे इसकी आक्रामकता कम हो जाये और यह पालतू बन जाये । फिर कुछ वक़्त बाद पलकों की सिलाई भी खोल दी जाती है ।

विलुप्त होता देख इसके संरक्षण के लिए राज्य द्वारा कानून ज़रूर बनाये गए लेकिन कहीं कहीं चोरी छिपे यह क्रूर हरकतें अभी भी देखने को मिल जाती हैं । लखनऊ में मैंने खुद अपनी आँखों से कई बार शिकरे और उल्लू को प्रशिक्षित करते हुए देखा है ।
तब मैं सोचता था बाज़ को यह कितना सालता होगा कि उल्लू कितना खुशनसीब है उसे कुछ जगहों पर मनहूस या अशुभ  मानकर लोग छूते नही,
लेकिन शौक़ीन मिजाजों ने अपने शौक़ की पूर्ती के लिए जिस तरह बेदर्दी से इन शानदार और खूबसूरत जानवरों को जो ताबड़तोड़ नुकसान पहुंचाए हैं उसका नतीजा यह है कि आज शिकरा तो विलुप्ति की कगार पर पहुँच गया है और दिखाई ही नही पड़ता,
मुझे याद है की आखिरी बार मैंने बाज़ तब देखा था जब मैं सातवीं कक्षा में पढ़ता था,तब से आजतक यह चिड़िया कहीं स्वछंद विचरण करती नज़र नही आई....आपको याद हो तो बताएं...
हालाँकि ज़्यादा बड़ी वजह इनके विलुप्तिकरण की पर्यावरण से जुडी है (उसके मूल में भी इंसानी करामात हैं), लेकिन इनकी विलुप्ति के सहायक कारणों में से इन्हें पालतू बनाने और इनके शिकार का इंसानी पागलपन भी है ।
अक्सर सोचता हूँ कि अगर जानवरों में भी शुभ अशुभ जैसी कोई मान्यता होती होगी तो निःसंदेह उनके अनुसार इस दुनिया का सबसे मनहूस जानवर इंसान ही ठहरता होगा ।

उसे समझा हमने

उसने कहा था यहीं रुके रहना
तबसे पहलू भी न बदला हमने

जिसने समझा था कोई खेल हमें
क़ाबिल ए इश्क़ उसे न समझा हमने

वफाओं की हुई कभी जो सख्त कमी
दामन अपना कभी न समेटा हमने

उसको रुसवाई से था सख्त परहेज़
नाम उसका कहीं न लिक्खा हमने

खत जो भेजा था साथ तोहफे के
उस खत को भी न सहेजा हमने

दामन ए वक़्त से जो निकला था
एक किस्सा जिसे लिखा हमने

नज़्म आई मेरा तवाफ़ किया
आँख भर कर उसे था देखा हमने

~इमरान~

धुआं देता था आग का पता

धुआं देता था आग का ही पता
रास्ता लेकिन पानी को न मिला

रास्ते खूब किये तय हमने मगर
कोई मन्ज़िल या हमसफ़र न मिला

शोर होता रहा शब् भर मेरे गिर्द
बात क्या थी ये कुछ पता न चला

फ़िक्रें घेरे रहीं यूँ माज़ी की
मुस्तक़बिल को ही मेरा घर न मिला

टेढ़े रस्तों पे खूब भटका किया
कोई सीधा सा रहगुज़र न मिला

ज़िन्दगी यूँ रोकती रही मुझ को
मौत को खेंचने का गुर न मिला

उनकी आमद के निशां हैं तो यहां पर मौजूद
वो यहां आया था पर उसे मैं न मिला

~इमरान~

कालेज से वापस

कॉलेज से वापस
घर आती हुई लड़की
कई आँखों के धेलों में
उतरने सी लगी
उसके बदन की
हर एक हरकत
कई दिलों पा
देती रही दस्तक
नज़रें ज़मीं में गड़ाये
वो तो चलती रही लेकिन
कई चलती हुई निगाहें
रुक सी गयीं
उसके गिर्द हर सूँ
मानो देख रही थीं
उसकी चाल की गति
उसके नितम्बों से लेकर
सीने के उभारों तक
उसके शरीर का
माप ले रही थीं जैसे
यक ब यक उस लड़की को
कई तीर से हुए महसूस
उसका जिस्म छेदते
नुकीले नयन बाण जैसे
तेज़ी से फिर
उसने संभाला अपना
गिरता हुआ दुपट्टा
किस तरह पाठशाला से
घर का रस्ता
तय कर ही डाला
आज फिर उसने
मैदान जीत ही लिया

~इमरान~

सियासी मौसम

तेज़ आवाज़ों से
गरजता हुआ आसमां,
गिरा रहा है
धरती पर,
महज़
चन्द बूंदे बरा ए नाम,
मिजाज़ मौसम का
आज हद दर्जा सियासी है...

~इमरान~

गुलामी की ज़ंजीरें

इक तय ढर्रे पर
चली आ रही है
दस से पांच की
वो उजरती गुलामी
जकड़ी हुई सरमायेदारों के
वहशी पंजो में
छटपटाती सी ज़िन्दगी
उसे समझ बैठी है
अपने जीवन की नियति
इसे ये भी नहीं मालूम
इसके लिए तो
सारा जहान रक्खा है
क़ुदरतों का निज़ाम रक्खा है
लेकिन निज़ाम ने इसे
महदूद कर दिया
किसी उजरती गुलामी में
इसे बताना होगा
कि ये दुनिया
उनकी नही हमारी है
इसमें हम सबकी हिस्सेदारी है
यही चिंगारी सुलगा कर
दिलों में उनके
लाल मशाल जलानी है
हम बहुत जी लिए गुलामी में
अब तो दुनिया नई बनानी है ....

~इमरान~

अच्छी तस्वीर अब नही आती

अच्छी तस्वीर अब नही आती
मेरी सूरत संवर नही पाती

बाल कितने भी मैं सही कर लूँ,
ज़ुल्फ़ें रूकती नहीं हैं बिखर जाती

मेरे कपड़े भी सब सिकुड़ से गए
इनसे सिलवट भी अब नही जाती

पाँव में जूतियां तो आती हैं
उमंग क़दमों में पर नही आती

इत्र चाहे लगा लूँ मैं जितने
खुशबू मुझसे तेरी नही जाती

मेरा मफलर गले में रहता है
इससे सर्दी लेकिन नही जाती

घेरे रहती हैं मुझको यूँ फ़िक्रें
शिकन पेशानी से अब नही जाती

करता रहता है दर्द मेरा तवाफ़
याद माज़ी की मिट नही पाती

हंसी तो हो गयी थी तभी गायब
अब तो मुस्कान भी नही आती

~इमरान~

अवसाद की पैराहन

रातें होती हैं
कई नींद से खाली
कभी सांसो में
होता है नदारद कोई,
मतलब इसका लेकिन
हरगिज़ ये नही होता,
की न आएगी
सुबह उजली नई
अपने हस्बे मामूर
तुम बस,
मेरा इक काम करो
दफन करके
तल्ख यादों को माज़ी की,
वक़्त ए सुबह की
तज़ादमी के खुद में
उतार लिया करो लम्हात
माना होते हैं उनमे
कई शिकवे ओ गिले
कुछ गलतियां भी,
चीनी मिटटी के कप में
किसी गर्म चाय की मानिंद
उलट कर उसको
पिला दिया करो मुझको
वो तल्खियाँ सारी,
अपनी वो सारे
दर्द और तकलीफ,
अपने अवसाद की पैराहन,
लपेट कर मुझमे,
मुझसे खूब तुम
किया करो शिकवे,
मैंने किया है न
सच्चा वादा तुमसे,
कोई तकलीफ कभी तुमको,
न दूंगा सहने कभी तन्हा जाना....

~इमरान~

अवसाद की पैराहन

रातें होती हैं
कई नींद से खाली
कभी सांसो में
होता है नदारद कोई,
मतलब इसका लेकिन
हरगिज़ ये नही होता,
की न आएगी
सुबह उजली नई
अपने हस्बे मामूर
तुम बस,
मेरा इक काम करो
दफन करके
तल्ख यादों को माज़ी की,
वक़्त ए सुबह की
तज़ादमी के खुद में
उतार लिया करो लम्हात
माना होते हैं उनमे
कई शिकवे ओ गिले
कुछ गलतियां भी,
चीनी मिटटी के कप में
किसी गर्म चाय की मानिंद
उलट कर उसको
पिला दिया करो मुझको
वो तल्खियाँ सारी,
अपनी वो सारे
दर्द और तकलीफ,
अपने अवसाद की पैराहन,
लपेट कर मुझमे,
मुझसे खूब तुम
किया करो शिकवे,
मैंने किया है न
सच्चा वादा तुमसे,
कोई तकलीफ कभी तुमको,
न दूंगा सहने कभी तन्हा जाना....

~इमरान~

हमारी मौत की झूठी खबर

हमारी मौत की झूठी खबर उड़ाता है
वो रण में टिकता नही है तो भाग जाता है

हमारे सामने पड़ने की उसे नही हिम्मत
जो आ भी जाए तो फ़ौरन नज़र झुकाता है

हमसे दुश्मनी करके सीखी है शराफत उसने
हमें न ज़िल्लत ओ रुसवाई में लुत्फ़ आता है

हुनर जो सीखा था नादाँ ने रसम निभाने का
हमारा तीर हमी पर वो अब चलाता है

वो तकल्लुफ़ी में जो हमने लिया नही बदला
भूल गए हैं हम ये धोखा उसे सुहाता है

यूँ छोटी छोटी सी जंगों के हम नहीं क़ायल
जो सर गिरे न तो फिर मज़ा ना आता है

किस तरह यूँ शराफत से लड़ी जाती जंगें
ये हमसे सीखो हमी को हुनर ये आता है

बगैर वार के गर्दन क़लम हंसी से करी
जो वार कर दें हम तो सैलाब आता है

शर्म से डूब ही मरा था भरी वो महफ़िल में
ये हमने पूछा था अब कौन तुमको भाता है

वार ख़ामोशी का करके किये हैं क़त्ल कई
उसे पता है तभी वो हमें बुलाता है.....

~इमरान~

गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

नई ज़िन्दगी के नाम

इक तय ढर्रे पर
चली आ रही है
दस से पांच की
वो उजरती गुलामी
जकड़ी हुई सरमायेदारों के
वहशी पंजो में
छटपटाती सी ज़िन्दगी
उसे समझ बैठी है
अपने जीवन की नियति
इसे ये भी नहीं मालूम
इसके लिए तो
सारा जहान रक्खा है
क़ुदरतों का निज़ाम रक्खा है
लेकिन निज़ाम ने इसे
महदूद कर दिया
किसी उजरती गुलामी में
इसे बताना होगा
कि ये दुनिया
उनकी नही हमारी है
इसमें हम सबकी हिस्सेदारी है
यही चिंगारी सुलगा कर
दिलों में उनके
लाल मशाल जलानी है
हम बहुत जी लिए गुलामी में
अब तो दुनिया नई बनानी है ....

~इमरान~

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015

भूत बिल्ली

अन्धेरा बढ़ चला है और इस वक़्त इस मेरे घर के इस विशाल आँगन में लगी सारी सोडियम लाइट्स रौशन होकर किसी दिन का सा मंज़र पैदा कर देती हैं...
दरमियान में खिली रात की रानी में मौसम के चलते कुछ गिने चुने ही आ सके फूलों पर पड़ती इनकी तेज़ रौशनी लगता है मानो कई नन्हे सितारों पर रौशन सूरज अपनी छटा बिखेर रहा है.....

मैं इसी दरख्त के पास आरामकुर्सी पड़ी पाकर बैठ गया था,कुछ देर में चाय भी मिल गयी, अम्मी को पता होता है कि यह मेरी चाय का वक़्त है,लिहाज़ा बिन कहे मिल जाया करती है, सामने छत की मुंडेर पर कहीं से दो फख्ताएं आकर बैठी हुई थीं, अमूमन परिंदे इस वक़्त अपने अपने घोंसलों में आराम कर रहे होते हैं लेकिन ना जाने क्यों यह जोड़ा अभी तक बाहर ही मौजूद था और छत की मुंडेर पर आके बैठ गया था, अपनी आवाज़ में चहचहाते हुए, फाख्ता की आवाज़ बिलकुल ऐसी होती है जैसे किसी इंसान की हंसी, इसलिए इसे लाफिंग डोव भी कहा जाता है...

पुराने ज़माने में जब शाम ढ़ले किसी सुनसान जगह पर झुण्ड में फख्ताएं बोलतीं थीं तो लोगों को अक्सर भूत प्रेत का भ्रम हो जाया करता था,मुहल्ले के आसपास के बड़े बूढ़े कई किस्से भी सुनाया करते ,

जैसे एक किस्सा किसी खूबसूरत औरत का था जो ज़ोर ज़ोर से हंसा करती थी,उसकी आवाज़ उसके पड़ोस में रहने वाले एक पहुंचे हुए बाबा को परेशान करती और उनकी इबादत में खलल पड़ता,औरतों की आवाज़ घर से बाहर नही आना चाहिए लिहाज़ा एक दिन उस बाबा ने नाराज़ होकर उस औरत को परिंदा बना दिया...
बचपन में हम समझ न पाते की खूबसूरत औरत के हसने की आवाज़ का इबादत में खलल से क्या ताल्लुक़ था... अगर वो औरत ज़ोर से हसती थी तो उस बाबा को इससे क्या दिक़्क़त हो सकती थी और अगर औरत की आवाज़ घर के बाहर आ जाये तो इससे मआशरे को क्या नुकसान हो सकता था...घरों में पली गाय भैंसे जब रंभाती हैं तो उनकी आवाज़ दूर तक गूंजा करती है... उससे किसी को कोई एतेराज़ न होती लेकिन घर में रहने वाली औरत की आवाज़ अगर बाहर चली जाए तो मज़हब पर खतरा मंडराने लगता है...बहरहाल हमारा बालमन उस वक़्त तक यह अजीब सा लॉजिक समझ नहीं पाता और न कभी हमारे घर में इस तरह का माहौल होने के चलते इसपर कभी बड़ों के मुंह से कोई चर्चा सुनने को मिलती कि इसके पीछे क्या तर्क हो सकता था...लिहाज़ा बचपन की कई पहेलियों की तरह ये पहेली भी अनसुलझी रह गयी...

हाँ लेकिन इस भूत प्रेत के भ्रम के लिए फाख्ता अकेली ज़िम्मेवार नहीं है,अक्सर कुछ अजीब हालात भी इसके लिए ज़िम्मेदार होते हैं... कैसे ? वो मैं बताता हूँ, ये तक़रीबन बारह साल क़ब्ल की बात है, वेस्ट इंडीज में कोई सीरीज चल रही थी, इंडिया सेमिफाइनल तक पहुँच चुकी थी,उस वक़्त तक मैच फिक्सिंग जैसे केस सामने नही आये थे लिहाज़ा हमारी क्रिकेट में रूचि बनी हुई थी, अम्मी तो सो चुकी थी लेकिन हम और पापा जाग रहे थे, रात का लगभग एक बजा था और चाय का तीसरा दौर चल रहा था । तभी अचानक दरवाज़े पर धड़ धड़ की आवाज़ सुनाई दी, जैसे बाहर से कोई दरवाज़े पर ज़ोर ज़ोर से हाथ मार रहा हो, पापा और मैं चौंके , इस वक़्त इतनी रात को कौन हो सकता है...

हालांकी पापा के सक्रीय राजनिति में होने के चलते अक्सर रात बिरात लोगों का आना जाना होता रहता था लेकिन फिर दरवाज़े के बाहर कॉल बेल लगी हुई थी, और दरवाज़ा पीटने का अंदाज़ भी कुछ अजीब सा था....मैंने दरवाज़ा खोलकर देखना चाहा कि कौन है लेकिन पापा ने रोक दिया...वो खुद गए और पहले दरवाज़ा खोलने के बजाए मैजिक ऑय से देखना चाहा की कौन है...लेकिन सामने कोई नज़र ना आया...मैंने भी झाँका लेकिन सामने बल्ब की तेज़ रौशनी होने के बावजूद कोई नज़र ना आता था...

हम बाप बेटे दोनों अंधविश्वास से सख्त चिढ़ते थे लेकिन फिर भी उस रात बड़ी अजीब स्थिति पैदा हो गयी थी...यानी दरवाज़ा रह रह कर धड़ धड़ बोल रहा था लेकिन सामने कोई दिखाई ना देता था...हम दोनों अब्बा बेटे क्रिकेट भूल कर एक दूसरे को ताक रहे थे कि अब क्या किया जाये...दरवाज़े की आवाज़ में कोई फर्क न था और रह रह कर थोड़ी थोड़ी देर पर आवाज़ आये जाती थी...

पापा ने दरवाज़े के पास लगी खिड़की खोली,और उससे झांक कर देखा कहीं ऐसा तो नही कि कोई दरवाज़ा बजाता हो और फिर मैजिक ऑय के सामने से हट जाता हो...लेकिन खिड़की से झाँकने पर भी कोई न दिखा और आवाज़ बदस्तूर जारी रही...

मैंने पुलिस में कॉल करने की सलाह दी ही थी कि इतने में पापा की नज़र खिड़की से झांकते हुए दरवाज़े की चौखट पर पड़ गयी, देखा तो वहां हमारी रोज़ी खड़ी हुई थी और अपने अगले पैरों से लगातार दरवाज़े को हिला रही थी...रोज़ी हमारी हट्टी कट्टी पर्शियन बिल्ली थी जो उस रात ना जाने कैसे घर के बाहर निकल गयी थी और इधर उधर आवारगी करने के बाद वापस अंदर घुसने का रास्ता तलाश कर रही थी ,क्रिकेट के चक्कर में हमें रोज़ी का ख्याल भी न रहा जो अक्सर घर के बाहर निकल इधर उधर घुमक्कडी कर लिया करती थी

दरवाज़ा चूँकि लोहे का था इसलिए उसका नाज़ुक सा धक्का भी तेज़ आवाज़ पैदा करने के लिए पर्याप्त था, पापा ने दरवाज़ा खोला, रोज़ी दौड़कर अंदर आई और सोफे पर अपनी निर्धारित जगह कूद कर लेट गयी...पापा और मैं वापस अंदर आये और फिर जब थोड़ी देर में हमारी आँखे मिली तो अपनी अपनी जगह बैठ हम काफी देर तक हसते रहे.....

सोमवार, 6 अप्रैल 2015

गरीब लोग

बहुत समय पहले की बात है जब जम्बूद्वीप में गरीब नामक जानवर रहा करते थे, इनके रहन सहन का स्तर बेहद गन्दा और घटिया होता था, फ़टे नुचे मैले कुचैले कपड़े पहनने वाले ये लोग निहायत असभ्य और बद्तमीज़ हुआ करते थे, न इन्हें पढ़ना लिखना आता था और ना ही देश दुनिया के नियम क़ायदे ही यह जानते थे ।

इन गरीबों की सबसे बुरी आदत थी हर वक़्त रोते रहना, हर बात पर रोना, यानि अगर आप सुबह सुबह उठकर इनकी शक्ल देख लें तो आपका भी सारा दिन रोते हुए बीत जाये ।

गरीब एक नंबर के मुफ़्खोर होते थे, मुफ़्त का अनाज,मुफ़्त की सब्सिडी, मुफ़्त की दवा यानी हर वो चीज़ जो इंसान के लिय ज़रूरी होती है वो इन गरीबों को मुफ़्त में चाहिए रहती थी ।

सरकार अगर ये चीजें इन्हें उपलब्ध करा देती तो ये और दूसरी अन्य चीजों के लिए रोना शुरू कर देते मसलन रोज़गार,शिक्षा,आवास,यानि ऊँगली थमाओ तो ये सीधा हाथ पकड़ लेते थे ।

अब बताइये, कोई किसी को कितनी मुफ़्त सुविधाएं उपलब्ध करा सकता है, ये तो सरकार की सहृदयता थी कि वो इन्हें कुछ सुविधाएँ दे दिया करती थी, वरना क़ायदे से तो इन्हें एक धेला भी नहीं दिया जाना चाहिए था ।
लेकिन कोई भला किसी की मदद भी कब तक कर सकता है? 

धीरे धीरे अब सरकार की भी हिम्मत जवाब दे रही थी, देश के सम्मानित उद्योगपति,बुद्धिजीवी और अधिकारी वर्ग 'अपने धन' को यूँ इस तरह गरीब नामक प्राणी की मुफ्तखोरी में 'ज़ाया' होते देख दुखी हो रहा था, इनके दुखी होने की आंच धीरे धीरे सरकार का गाल भी जलाने लगी,लिहाज़ा 'सिस्टम' को हरकत में आना पड़ा ।

सरकार ने अपने सबसे क़ाबिल अफसरान की एक मीटिंग बुलाई,अधिकारियों को निर्देश दिया गया कि निर्धारित समय के भीतर देश में गरीबी के समस्त कारणों पर अध्यन करके एक संक्षिप्त और स्पष्ट रिपोर्ट सरकार को सौंपी जाये,अधिकारीयों ने कान लगाकर सरकार की बात सुनी और काम पे लग गए, 
तय वक़्त पर रिपोर्ट साहेब की टेबल पर थी।

गरीबी के कारणों का समग्र अध्यन करने के बाद सलाहकारों की सहमति से यह निर्णय लिया गया कि उक्त रिपोर्ट में इंगित कारणों के निदान के लिए एक अलग विभाग गठित किया जाये जिसका कार्य केवल गरीबी मिटाने के लिए सरकार को सुझाव देना हो,
विभाग गठित हुआ और काम भी शुरू हो गया ।

जैसा की सरकार का निर्देश था,गरीबी की समस्या जड़ से खत्म होनी चाहिए, अर्थात,गरीबी नामक वृक्ष को काटा नही जाये,बल्कि उसको जड़ से उखाड़ कर फेंक दिया जाये और ज़मीन में मट्ठा डाल दिया जाये ताकि बाद में कोंपलों के रूप में भी गरीबी दोबारा न उग सके।

नवगठित गरीबी मिटाओ विभाग की सरकार के साथ बैठक तय हुई, गोल मेज़ के चहुंओर अफसरान जमा हुए,साहेब भी आ पहुंचे थे,औपचारिक अभिवादन के बाद बैठक शुरू की गयी।

साहेब ने सवाल दागा-"हाँ तो मितरो, अर्र..मेरा मतलब अधिकारी महोदयों,ये गरीबी मुई कैसे मिटेगी भई?"

मुख्य अफसर ने बोलना शुरू किया,
सर! जैसा की आप जानते हैं (समझदार अफसर हर बात कहने से पहले ये कहना नही भूलता,भले से उसको पता हो कि सर ने कभी स्कूल की शक्ल तक नही देखी है) गरीबी के इंगित प्रधान कारणों में से एक था बेरोजगारी, लोगों के पास करने के लिए काम नही है, काम नहीं होगा तो पास पैसे नही होंगे,पास पैसे नही होंगे तो जीवन आभावग्रस्त हो जायेगा,जीवन जब अभावग्रस्त होगा तो चीजों का अकाल हो जायेगा, तब गरीब को मजबूरन खर्चों में कटौती करनी पड़ेगी, और महज़ उन चीजों का ही उपभोग कर पायेगा जो उसे सब्सिडी और मुफ़्त सुविधा के नाम पर सरकार के सहयोग से उपलब्ध हो जाती हैं , मसलन कम दामों पर अनाज,ईंधन वगैरह,इस प्रकार गरीब हमारे देश में किसी सूरत केवल दो वक़्त खाना खा पाता है....

(हालाँकि खाना तो आवारा कुत्ता भी खा लेता है....तो?? इस देश में गरीब और आवारा कुत्ते की हालत में दस अंतर लिखकर मुझे बताइये....मैं लिखना छोड़ दूंगा...जिस तरह आवारा कुत्ता बे घर के कभी इधर तो कभी उधर घूमा करता है उसी तरह गरीब भी कभी यहां तो कभी वहां अपना झोपडा लिए टहलता जाता है,जिस तरह कुत्ते के आगे कसाई बची खुची हड्डियों के टुकड़े फेंक दिया करता है उसी तरह सरकार...अर्रर ये तो मेरा मुद्दा भटक गया...बात यहां गरीबी मिटाने के सरकार के क़दमों के बारे में हो रही थी...)

तो बहरहाल गरीबी मिटाओ विभाग के अफसर ने आगे गरीबी के निदानों पर चर्चा शुरू की,

"इस प्रकार अभावग्रस्त जीवन जीते जीते जब गरीब आदमी बीमार हो जाता है तो उसे दवा की ज़रूरत पड़ती है...वो (मुफ्तखोर कहीं का) दवा लेने सरकारी अस्पताल जा पहुंचता है...वहां से उसे किसी तरह (जूता चप्पल घिसने और सरकारी बाबुओं और डॉक्टर की घुड़कियाँ सुनने के बाद) दवा मिल ही जाती है ।

एक मिनट,,ये गरीबों के बीमार पड़ने की दर क्या होगी बताना ज़रा? साहेब ने बीच में सवाल किया।

सर हमारे अध्यन के मुताबिक लगभग हर गरीब समय समय पर बीमार पड़ता ही रहता है।

अब अभावग्रस्त जीवन होगा तो बीमार पड़ेंगे ही....समिति के एक बुज़ुर्ग सदस्य ने बोलना शुरू किया...प्रधान कारण बेरोज़गारी ही है,जिसकी वजह से.....

साहेब बीच में बोल पड़े एक मिनट सिन्हा साहब आप रुकिये....हाँ तो वर्मा जी, ये गरीब आये दिन बीमार पड़ता रहता है...उसे हमारे हास्पिटल से मुफ़्त दवा मिल जाती है और वो बच जाता है...अगर उसे दवा न मिल तो?

बेचारा गरीब बिना इलाज के तड़प के मर जायेग सर...सिन्हा साहब दोबारा बीच में बोल पड़े ।

ओफ्फो सिन्हा साहब आप दो मिनट शांत नही रह सकते?आप बताइये वर्मा जी, 

वर्मा आँखों में चमक लिए बोले....अगर उसे दवा ना मिले फिर तो देश गरीबों की संख्या में भारी गिरावट आ जायेगी सर...

ह्म्म्म.....चलिए ठीक है.. आज की मीटिंग यहीं बर्खास्त की जाती है...कोई निर्णय संभवतः अगले सत्र में शीघ्र होगा ।

मीटिंग की खबर आई गयी हो गयी...किसी को याद भी नही रहा कि ऐसी कोई बैठक भी बैठी थी।

एक हफ्ते बाद अखबार में पहले पन्ने पर खबर छपी,

"उधोगों को दी जाने वाली सब्सिडी में 10% का इज़ाफ़ा,निवेश में बढ़ोतरी की उम्मीद,अर्थशास्त्रियों ने सरकार के क़दम की भूरि भूरि प्रशंसा की,देश में आएगी विकास की बहार"

अख़बार में अंदर ही कहीं सातवें आठवें पृष्ठ पर एक कॉलम की खबर पन्नों के बोझ से दबी अपनी आखिरी सांसे गिन रही थी,वहां लिखा था-

"स्वस्थ्य बजट में कटौती की गई,अस्पतालों को दी जाने वाली दवा सप्लाई पर सीधा असर,सरकारी अस्पतालों में नही मिलेगी मुफ़्त दवा," ।

~इमरान~