मंगलवार, 31 मार्च 2015

पाठ्यक्रम -भारत का इतिहास-कक्षा 8 (सन्2099

पाठ्यक्रम -भारत का इतिहास-कक्षा 8 (सन्2099)

बहुत समय पहले की बात है, इस मुल्क में एक किसान नामक चालाक प्राणी रहा करता थ,ये एक बेहद दुबला पतला सा लेकिन गज़ब का जीवट किस्म का बन्दा हुआ करता था,कोई काम धाम तो इसके पास रहता नहीं था,अतः रात सूरज निकलने के दो घण्टा पहले से अपने अपने खेतों में पहुँच जाया करता था और वहां जाकर पागलों बेवकूफों की तरह हल चलाना और मेढ़ बांधना शुरू कर देता था,

चूँकि किसान को सिंचाई वगैरह के लिए अधिकतर वर्षा पर निर्भर रहना पड़ता था लिहाज़ा कभी कभी बारिश न होने पर फसल कम हो जाती , अक्सर ऐसा भी होता था की बिन मौसम की बरसात के कारण खड़ी फसल भी बर्बाद होने लगती...

इस सबके चलते इसने एक बेहद बुरी आदत पैदा कर थी...बात बात पर ये सरकार बहादुर से क़र्ज़ लिया करता था, सरकार चूँकि बड़ी दयालु,भोली भाली और जनहित के सरोकारों वाली संस्था होती है, वो किसान को बिन ब्याज का क़र्ज़ दे दिया करती थी,

लेकिन चालाक किसान सरकार बहादुर की इस दरियादिली का गलत फायदा उठाता था, वो क़र्ज़ ले तो लेता लेकिन सरकार को वापस नहीं करता था, वापस न करने के हज़ार बहाने तलाश लेता था लेकिन कर्ज़ा लौटाता न था,
कभी वो कहता कि बारिश ना होने के कारण फसल नहीं हुई, तो कभी वो कहने लगता कि असमय बारिश हो जाने से फसल खराब हो गयी....

यानि देखी आपने इसकी चालाकी? बारिश हो तो भी बहाना, ना हो तो भी बहना, खैर सरकार किसान की इन चालबाजियों को बड़ी अच्छी तरह पहचानने लगी थी,

सरकार पहले तो बड़े प्यार से उसके घर बैंक के एजेंट भेजती, फिर नोटिस वगैरह, लेकिन बेगैरत किसान इतना चालाक होता था कि इन सबसे बचने के लिए वो घर से ही गायब हो जाया करता था,
लेकिन आखिरकार जब नौबत आ ही जाती और किसान को ये अहसास हो जाता की अब वो सरकार के चंगुल से बच नही सकेगा तो फिर उसने ऋण चुकाने से बचने का एक और नायाब नुस्खा निकाला, वो नुस्खा था "आत्महत्या" का,

जैसा की आप जानते हैं भारत एक धर्मप्रधान देश हैं,हमारे यहां धर्मग्रंथों में लिखा है की ये शरीर नश्वर है, जिस्म फानी है, मरने के बाद आप अगर हिन्दू हैं तो पुनर्जन्म/स्वर्ग और मुस्लमान हैं तो आखिरकार जन्नत आपको मिलनी ही मिलनी है, लिहाज़ा चालाक किसान अपनी नई योजना के तहत जन्नत और स्वर्ग की लालच में सरकार बहादुर का पैसा हड़प करके बिना चुकाए ही जन्नत के मज़े लूटने आसमान की जानिब चला जाता था....

इसी तरह ये लालची प्रजाति धीरे धीरे सरकार का सारा पैसा क़र्ज़ की शक्ल में लेकर उसे अय्याशियों में उड़ाती और जब चुकाने की बारी आती तो धरती छोड़कर स्वर्ग भाग जाती थी...चूँकि स्वर्ग का एरिया सरकार बहादुर के नियंत्रण से बाहर है अतएव वो इस पलायन पर कुछ न कर सकी....

फिर सरकार ने अपने सलाहकारों की एक बैठक बुलाई, बैठक में उपस्थित "भद्रजनों" ने किसानों की इस धूर्तता से सरकार बहादुर को बचाने का एक नया तरीक़ा ईजाद कर निकाला,
अब सरकार ने किसानों की ज़मीनें अधिग्रहित करना शुरू कर दीं और उसपर बड़े बड़े उधोग लगाने शुर कर दिए, पहले किसान इन ज़मीनों पर अनाज उगाता था,नतीजा ये निकला की किसान तो सब खुदकुशी करके स्वर्ग/जन्नत भाग गए और अब उन के बच्चे सब अपनी ही ज़मीनों पर बनी इन फैक्ट्रियों में मज़दूरी करने लगे... सरकार के इस क़दम की देश के "बुद्धिजीवी" वर्ग ने भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए उसे खूब सराहा...

इस प्रकार धीरे धीरे कुछ रोज़गार बदलने और कुछ स्वर्ग पलायन के चलते एक दिन ऐसा आया कि धरती से यह किसान नामक चालाक और धूर्त नस्ल आखिरकार विलुप्त ही हो गयी...और इनके जाने से "सभ्य समाज" ने चैन की सांस ली ।

क्या इसीलिए अब हमको पेड़ पौधों के पत्ते और मांस खाकर गुज़ारा करना पड़ता है गुरूजी?

फैक्ट्री में काम करने वाले एक मज़दूर बच्चे ने सवाल किया ही था कि तभी घण्टा बज गया....कक्षा का समय समाप्त हो चुका था, गुरुजी ने एक बार उस बच्चे को जो दरअसल किसान प्रजाति का बचा हुआ अवशेष् लग था था, गुस्से की निग़ाहों से देखा...सहपाठी ने बेंच के नीचे से उसकी जंघा पर हाथ मारा, बच्चा सहम कर चुप हो गया, गुरूजी रजिस्टर लपेट क्लास के बाहर निकल गए थे ।

~इमरान~

आतंकवादियो पर लाख लानतें और वशिकुर रहमान को सलाम !!

ग्रेजुएशन के ज़माने में एक बार मैं अपने कुछ मित्रों के साथ एक मानसिक अस्पताल गया था, वहां हमें अपने एक मित्र के भाई को देखने जाना था जो उस चिकित्सालय में कई दिन से भर्ती थे,

दरअसल भाईसाहब को गांजा पीने की बुरी लत लग गयी थी,उसके अलावा भी कुछ छोटे मोटे नशे वो करने लगे थे,उनकी ये आदत इतना ज़्यादा बढ़ी की एक दिन नशे ने उनका दिमाग ले लिया और बेचारे पागल हो गए,

अब उन्हें एक कमरे में अलग रखा जाता था, जो डॉक्टर उनका इलाज करने जाते वो उन्ही से हाथापाई करने की कोशिशें करते, बड़ी मुश्किल से उन्हें हाथ पाँव से पकड़ कर जांच की जाती और दवा वगैरह दी जाती थी,

भाईसाहब अपनी खराब मानसिक स्थिति और नशे के दुष्प्रभावों के चलते यह समझ सकने में असमर्थ हो गए थे कि आने वाले डॉक्टर्स उनके भले और सेहत के लिए ही उन्हें दवा इत्यादि दे रहे हैं,

बांग्लादेश में अभी दोबारा एक नास्तिक ब्लॉगर की हत्या इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा कर दी गयी....खबर सुनते ही मेरे ज़ेहन में भाईसाहब वाला किस्सा गूंज गया, ये मज़हबी लोग भी दरअसल धर्म के लगातार नशे के कारण सही और गलत में तमीज़ करने की अपनी सलाहियत खो बैठे हैं,

हालत यह है कि अगर कोई तार्किक / वैज्ञानिक सोच रखने वाला सामान्य इंसान इनके बीच इन्हें समझाने बुझाने (इनका इलाज करने) जाता है तो ये उसके साथ भी वही व्यवहार करने लगते हैं जैसे एक मानसिक रोगी अपनी चिकित्सा के लिए आने वाले डॉक्टरों के साथ करता है,

एक मानसिक रोगी (पागल नहीं) और एक कट्टरपंथी धार्मिक ( यानि पक्का पागल) में एक फर्क बस इतना होता है कि मानसिक रोगी यह सब कुछ् बदहवासी और बेहोशी के आलम में करता है और मज़हबी लोग यही काम पूरे होशोहवास में बाक़ायदा योजना बनाकर अंजाम देते हैं....

कानून भी इनका जल्दी कुछ नही बिगाड़ पाता क्योंकी इंसाफ देने वाले सिस्टम में भी इनके जैसे कुछ पागल बैठे ही रहते हैं....

ना जाने धरती को इन पागलों से मुक्ति कब मिलेगी और ना जाने कब दुनिया एक धर्म/मज़हब विहीन महज़ स्वस्थचित्त इंसानों के रहने लायक बन सकेगी,

बहरहाल, किसी विकृतचित्त मानसिकता वाले की हरकतों के चलते जिस तरह एक डॉक्टर इलाज करना नहीं छोड़ देता उसी तरह चंद मज़हबी पागलों की हरकतो के चलते इंसानियत का परचम बुलंद करने वाले अविजित,पनसरे,दाभोलकर,और हालिया ताज़ा शिकार वशिकुर रहमान भी आने वाली नस्लों को इनके मज़हबी नशे की लत से दूर रहने और तार्किक मानवतावादी इंसान बनने का पैगाम देते रहने के अपने फरीज़े से पीछे नही हट सकते,

ये इनकी हत्याएं करते रहेंगे और इसी प्रकार अपनी मूर्खताओं से इनके पैगाम को और भी ज़्यादा ताक़तवर और मशहूर बनाते रहेंगे ।

आतंकवादियो पर लाख लानतें और वशिकुर रहमान को लाल सलाम !!

~इमरान~

रविवार, 29 मार्च 2015

बेमौसम बरसात

मौसम एक बार फिर पलटी सी ले रहा है, तेज़ हवा चल रही है और आंधी जैसे आसार नज़र आ रहे हैं....

कुछ लोग इसमें आशिक़ाना रुमानियत तलाश करेंगे कुछ अपने बिछड़े इश्क़ को याद कर रहे होंगे...किसी के लिए यह उसकी तैयार खड़ी गेंहू की फसल की बर्बादी का पैगाम होगा तो कहीं बालमन धागों में पन्नियाँ बांधे उसे लेकर मैदानों में दौड़ लगा रहा होगा..

प्रकृति का एक ही रंग अलग अलग ज़िन्दगियों के कनवास पर अलग अलग मंज़र उकेरता हैं...
तेज़ हाड़ कंपाती सर्दी अपने आलिशान हवेलियों में आरामकुर्सी पर बैठे अंगीठी के आगे हाथ में रम का पेग और मोटी सी किताब लिए शख्स के लिए कुछ और ही मज़ेदार मआनी रखती है तो वहीं किसी फूटपाथ पर अपने रिक्शे को ही बिछौना बनाये उसी जैसे हड्डी गोश्त वाले इंसान के लिए इसका अलग ही मतलब होता है...

चिलचिलाती गर्मी में लू के थपेड़े सह कर खौलते तारकोल से सड़क बना रहा मज़दूर गर्मी की अलग ही परिभाषा बताता है वहीं अपने तीस बाई चालीस के फुल ऐसी कमरे में लेते डॉक्टर साहब के लिए यह आराम से सोने का वक़्त होता है.....

अभी कुछ दिन पहले भी इसी तरह अचानक तेज़ बारिश शरू हो गयी थी जिसके चलते किसानों को भारी मात्रा में फसल का नुकसान सहना पड़ा था, हालाँकि प्रदेश सरकार ने मुआवज़े और राहत की घोषणा तो ज़रूर की थी लेकिन यह घोषणाऐं ज़मीनी स्तर पर कितनी कारगर साबित होती हैं किसी से छिपा नही है,

बचपन से ही जब कभी अचानक बेमौसम की तेज़ बारिश या आंधी तूफ़ान जैसा मंज़र सामने आता था तो हम बड़े खुश हो जाया करते,फुटबॉल लेकर घर से बाहर निकल मैदान में पहुँच जाना और मौसम के मज़े लूटना बेहद ख़ास शौक़ था...

खैर बचपन के साथ खेल तो छूट ही गए साथ ही छूट गया ये मौसमों के साथ ख़ुशी और गम का रिश्ता भी...

अब तो जहाँ एक तरफ बेमौसम की बरसात ख़ुशी का अहसास दिलाती है तो फ़ौरन ही दूसरी तरफ फौरन किसी किसान को होने वाले भावी नुक्सान और उसके दर्द का अहसास भी करा जाती है...
बारिश में भीगते ये परिंदे मुझे बेघर मज़दूर के भीगते ठिठुरते बच्चों जैसे लगते हैं, इनका कलरव किसी महबूबा का सुरीला गीत ना लगकर किसी बीमार का रुदन प्रतीत होता है....

लिहाज़ा मुझसे कभी इन बेसौमम की बरसातों को लेकर कुछ "रूमानी या अच्छा" नही लिखा जाता...

इन बरसात की बूंदों में महबूब के आंसू तलाशने वालों ने शायद अभी तक क़र्ज़ में डूबे और खुदकुशी की फ़ासी के फदे से लटके किसान की आँखों की खून की बूंदे नहीं देखीं होंगी ऐसा मेरा ख्याल है....और अगर सबकुछ जानने के बाद भी आप ऐसे माहौल में रोमांस तलाश पा रहे है तो माफ़ कीजिएगा साथी...मुझे आपके इंसान होने पर संदेह है...

अपने बच्चों की तरह किसान फसल को पालता है और अचानक से निष्ठुर प्रकृति उसकी आँखों के सामने उसे बर्बाद कर डालती है... अगर वाक़ई कहीं ईश्वर जैसा लेशमात्र भी कुछ है तो बेहद क्रूर है वो...मुझे बड़ा डर लगने लगा है उसके किसी भी प्रकार के अस्तित्व की कल्पना से ही...

सोमवार, 23 मार्च 2015

सफ़र और मंज़िल part II

आसपास मोतिए के फूल महक रहे थे, उसके सामने सुनहरी सेज़ तैयार रखी थी.... सालों से जागती उसकी आँखों में नींद तैरने सी लगी....आँखों के सुर्ख डोरे उभर से गए.... बिस्तर उसकी आँखों के सामने था, उसने खुद को उसपर रख दिया... रखा क्या गिरा दिया था....नरम बिस्तर उसको अनोखा आराम दे रहा था.... ऑंखें अब बंद हो चली थीं.... बन्द आँखों में धीरे धीरे अँधेरा तैरने लगा...जिसे नींद कहते हैं उस नेमत ने उसे यक बा यक सेहराब करना शुरू कर दिया था.... सालों से प्यासे उसके होंठो ने किसी रेगिस्तानी ऊंट की तरह नींद को लबों से पीना शुरू कर दिया...
देखते ही देखते उसकी आँख लग गयी.... सो गया था वो....मगर महज़ उसका वजूद सोया था...उसके अंदर का कोई परिंदा अभी जाग रहा था...अंतर्मन अपने पंख फड़फड़ा रहा था....  उड़ने की तयारी में जैसे कोई जाने को हो,ठीक वैसे ही..... मस्त मन्द सी हवा के झोंके उसे दावत ए परवाज़ दे रहे थे..... वो चल दिया....पंखो को मदमस्त नर्तकी की तरह इठलाता उड़ता दूर गगन के एक नए लोक में प्रवेश कर गया...स्वप्नलोक....एक ऐसी दुनिया जहाँ हक़ीक़त का सामना न कर सकने वाले इंसान कल्पनाओं में जीने का अभ्यास किया करते हैं....जहाँ वास्तविकता से हटकर एक नई ही कायनात बसा करती है.... वहां पहला क़दम रखा उसने.... चारों ओर हसीन सब्ज़े महक रहे थे... एक छोटी सी झील में रंग बिरंगे हंस तैर रहे थे....सामने एक खूबसूरत दरवाज़ा नज़र आया.. उसकी जानिब बढ़ना चाहता था....लेकिन मन में एक झिझक सी थी....उसके पंखों ने एक बारगी उसे रोका सा...लेकिन उसने अनसुनी कर दी.... उस दरवाज़े की खूबसूरती ही ऐसी थी कि वो खुद पर काबू न रख सका... उसके साये ने उसे थामना सा चाहा था...मगर थाम न सका... वो उस दरवाज़े में दाखिल हो ही गया.....बस वही से ख्वाब के मंज़र बदलने से शुरू हो गए... दर के अंदर चारों तरफ सोने और चांदी की नक्काशी थी.... लेकिन वहां से कुछ आगे बढ़ने पर सामने एक जगह पर कोई आग सी भी जल रही थी.... आग के चारों तरफ अजीब किस्म की परेशानियां मौजूद थीं....जिन्होंने उस परिंदे को हर जानिब से घेरना शुरू कर दिया था...कोई तलवार दिखाता था तो कोई भाले की नोंक से डराता था...हसीन ख्वाब अब धीरे धीरे किसी डरावने से मंज़र में तब्दील हो चुका था.... वो उससे बाहर निकलना चाहता था मगर निकल नहीं पा रहा था....कहीं अचानक सामने से अजब अजब शक्लों के दैत्य खड़े हो जाते तो कभी किसी बड़ी सी गुफा से दहाड़ते शेर उसके पीछे लग जाते.... उसने अपनी पूरी ताक़त से उड़ना शुरू कर दिया ..... पीछे आग की लपटें उसके पर जला देना चाहती थीं...उसके पंखों को छू लेने को आतुर उसकी और लपक ही रही थीं कि उसे सामने कहीं दूर एक छोटा सा रौशनदान नज़र आया...अपनी बची खुची क़ूवत समेट कर वो उस रौशनदान की ओर बढ़ चला....तभी अचानक सामने से एक बेहद भयंकर सा शख्स नमूदार हुआ और उसने एक हैंडल घुमाकर रौशनदान को बन्द करना शुरू कर दिया.... वो घबराया और अपने परवाज़ की रफ़्तार को और तेज़ कर दिया .... उस सपनों की दुनिया के भीतर की दुनिया से बस निकला ही चाहता था...रौशनदान से उसका सर बाहर निकला और एकबारगी उसे लगा की उसका आधा शरीर इस बन्द होते दरवाज़े से कट कर भीतर ही रह जायेगा.... बहरहाल वो उस खिड़की से बाहर निकलने में कामयाब हुआ....बाहर निकलकर देखता है की एक अलग ही दुनिया उसके इंतज़ार में सामने खड़ी थी....ये शुरुआत में हसीन लगने वाला ख्वाब पल दर पल भयानक होता जा रहा था.... उसके सामने अब और भी ज़्यादा भयानक मंज़र दरपेश था.... सामने एक आग का दरिया नमूदार हो रहा था.... मौत अपने पंख फैलाये उसके इस्तेकबाल में खड़ी थी.... उसे गले लगा लेना ही चाहती थी कि अचानक पीछे से उसको किसी ने पकड़ कर अपनी तरफ खींच लिया.... उसे अपने परों पर दो हाथ महसूस हुए.... मानो किसी ने उसको ज़ोर से झिंझोड़ा हो..... उसने घबरा कर आँख खोल दी...उसके पंख गायब होकर हाथों में तब्दील हो चुके थे....बाल ओ पर वाले परिंदे से वो दोबारा इक इंसान के पैकर की शक्ल अख्तियार कर चुका था.... ख्वाब हालाँकि टूट गया था लेकिन उसे माथे पर मानो अभी भी उस आग के दरिया की गर्मी की वजह से पसीना मौजूद था..सामने देखा... उसकी हमसफ़र खड़ी थी...... वो मुस्कराया,

"तुम कोई बुरा ख्वाब देख रहे थे...मुझे लगा तुम्हे जगा देना चाहिए...."

"ख्वाब वाक़ई बुरा था,अच्छा किया जो तुमने जगा दिया"

"ख्वाब बुरे ही होते हैं....हमें हक़ीक़त में जीना सीख लेना चाहिए"

मुस्कुरारते हुए साथी ने पूछा...."हम आज कहाँ तक पहुंचे?

"आज हम बाग़ ए हक़ीक़त में जा पहुंचे हैं....यहाँ एक रात क़याम करने और इसकी खुशबुओं को खुद में बसाने के बाद हम अगले पड़ाव पर कूच करेंगे जहाँ फूलों की सेज़ तैयार हमारा इंतज़ार कर रही है"

"तब तक फूल सूख ना जायेंगे?"

"उफ़,तुम कितने सवाल करते हो"

"नही....नही करूंगा....वैसे उस पड़ाव पर कुछ ख़ास है?" उसने शरारत से फिर सवाल दागा....

"कुछ नहीं....बेहद"

अच्छा .....?

इक मुख़्तसर जवाब देकर वो उसका हाथ थामे चलने हो हो दी,जवाब था....

"हाँ.....हमारी इश्क़रात..."

वो मुस्करा कर अपने धड़कते दिल को संभाल उसके पीछे हो लिया......

गुरुवार, 5 मार्च 2015

होली कथा

जौनपुर के हमारे मोहल्ले में होली की तैयारियां अभी से शुरू हो गयी हैं, कानफोड़ू डीजे पर रंगारंग गाने बज रहे हैं। अश्लील भोजपुरी गानों के आधे समझ में आते और आधे सर के ऊपर से गुज़रते अलफ़ाज़ सुनकर ही हाथ बरबस कान पर चले जाते हैं, लोग तो अभी से सूखे रंगों में रंगे हुए सड़क पर नाचना शुरू कर दिए हैं , कल चौराहे पर ऊंची जगह एक मटकी टांगी जायेगी,और फिर मटका फोड़ प्रतियोगिता शुरू होगी...हर साल की तरह इस साल भी मैं अपनी छत से चाय पीते और धूप सकते हुए इस पूरे कार्यक्रम का मज़ा लूँगा। लेकिन इस बार ज़रा अतिरिक्त सावधानी रखते हुए क्योंकि पिछली बार सामने वाले घर के एक भाईसाहब ने वहीं से अपनी प्रेशर वाली बड़ी पिचकारी का सटीक निशाना लगाकर मेरे ऊपर रंग डालने और मेरी उजाला व्हाइट शर्ट को लाल गुलाबी करने में कामयाबी हासिल कर ही ली थी,हमें मुखबिर ने होशियार कर दिया है की भाईसाहब इस बार भी ताक में हैं लेकिन अबकी मैं उनकी साज़िश कामयाब नही होने दूंगा.....

ऐसा नही है की मुझे त्यौहार नापसंद हों, इस दुःख और चिंताओं से भरी दुनिया में खुश होने के बहाने किस इंसान को बुरे लग सकते हैं....लेकिन बस अब मुझे रंगों से थोड़ी चिढ सी होती है. वो भी इसलिए की ये आसानी से छूटते नही और फिर एक तो अब मेरा ये बचकानी हुड़दंग बाज़ीयां करने का मन भी नही करता,

होली के बारे में जो बात मेरे लिये सबसे ख़ास है वो यह कि रंगो का त्यौहार मुझे हमेशा मेरे लखनऊ और मेरे बचपन की याद दिला देता है,

लखनऊ के जिस शिया बाहुल्य क्षेत्र में हम रहते थे वहां 21 मार्च यानि नौरोज़ के दिन खूब रंग खेला जाता है। बिलकुल होली जैसा हुड़दंग होता है और वैसे ही पकवान घरों में बनते हैं।
इस दिन हम शाम होने तक अपनी पिचकारियाँ लिए पूरे मोहल्ले के हर घर में घुस घुस के रंग खेला करते थे। वो मोहल्ला क्या था एक सामूहिक परिवार हुआ करता था जहाँ दो ढाई सौ के क़रीब सभी घरों में बिना आवाज़ बिना आहट किये डायरेक्ट इंट्री हुआ करती थी हमारी। एकदम जैसे अपने घर में जाते हैं ठीक वैसे ही।और बिलकुल परिवार के किसी सदस्य की भाँती व्यवहार करते थे हम एक दूजे से।
चैराहे पर टोली बनाकर खड़े होना और हर आने जाने वाले को रंगो से सराबोर कर देना.....दो गधे पकड़कर उनको रँगना और फिर उनपर किसी खिलौनेनुमा शख्स को उलटा बिठाकर पूरे मोहल्ले में उसका जुलुस निकालना....
फिर सारा दिन रंग खेलने के बाद इलाके की मस्जिद के हौज़ की साफ़ सफाई भी हम मोहल्ले के सारे लड़के मिलकर करते थे।
इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था की हौज़ की कोई मछली मरने ना पाये और उनको एक बड़ी पन्नी में जमा करके वापस सफाई के बाद हौज़ में छोड़ने का इंतज़ाम पूरी ज़िम्मेदारी से किया जाता था,

चूँकि हम नौरोज़ में खूब रंग खेलते थे लिहाज़ा बचपन से ही हमारे लिए हमारे नौरोज़ की तरह होली भी बस एक रंगों का और खुशियों के मनाने का त्यौहार हुआ करता था....और होली में भी बगल के चौपटियां या अम्बरगंज साइड निकल कर अपने हिंदी नाम वाले दोस्तों के साथ रंग खेल आया करते थे और दावत भी उड़ा लेते थे। (इस होली की दावत के एवज़ बक़रीद की मटन बिरयानी की दावत हमारे ज़िम्मे होती थी)

खैर.....होली और नौरोज़ के बीच हमे कोई फर्क तब तक नही समझ आया था जब तक किसी शैताननुमा इंसान ने कानों में हिन्दू और मुसलमान नामी दो शब्दों का ज़हर नही घोला था।
बहरहाल हमने भी नीलकंठ की तरह इस ज़हर को अपने गले में ही रोक लिया दिल में ना उतरने दिया कभी...
और जब तक नौरोज़ में रंग खेला किये तब तक कोई होली भी सूखी न जाने दी।
शब् ए बरात जब तक आतिशबाज़ी की तब तक दीवाली को भी अपने घर से अँधेरे में ना गुजरने दिया।
फिर वक़्त के साथ ज़ेहन बूढा सा हो गया और रंग खेलना और पटाखे जलाना बचकानी हरकतें लगने लगीं।
अब यही काम बच्चों को करते देख खुश भर हो लेते हैं....हाँ लेकिन "अन्य पर्वोचित खान पान" और मेल मिलाप से अब भी कोई परहेज़ नही करते....अभी ये लिखते वक़्त भी पड़ोस से आई मीठी गुझिया की प्लेट सामने रखी हुई है।

एक सबसे ख़ास हमारे साथ चीज़ और होली और नौरोज़ की यादों से जुडी है यह की ये दोनों दिन हमारी सालाना पिटाई के दिन हुआ करते थे।
मसला दरअसल ये था की हम रंग खेलना नही छोड़ सकते थे और पापा हमारा मोहल्ले के "लोफर लौंडों" के साथ खेलना बर्दाश्त नही कर सकते थे...
लेकिन जब तक हमारे मन में होली और नौरोज़ के रंगों के खेलने की इच्छा जीवित रही तब तक पापा से बावजूद पिटाई खाने के यह असहमति भी चलती रही।
ना मेरा विद्रोही स्वभाव किसी पिटाई के डर से मुझे मेरी पसंद का खेल खेलने से रोकने देता ना पापा की मुझे "सुधारने" की ज़िद उन्हें मेरी पिटाई करने से रोकती....

बाद में थोडा बड़े होने पर पापा से यह असहमतियां वैचारिक रूप धारण करती गयीं। ऐसा होने पर अब पिटाई बन्द हो गयी और सम्मान मिलना शुरू हो गया।

खैर अब तो न रंग खेलने वाला वो बालमन रहा न अब पापा ही रहे। लेकिन सच कहें, होली और नौरोज़ के उन रंगों से ज़्यादा आज पापा और उनकी वो पिटाई याद आती है, मन करता है किसी तरह पापा वापस उस बेकार सुनसान से क़ब्रिस्तान की अपनी आरामगाह से उठकर वापस आएँ और अपना वही खादी का कड़क सफेद कुर्ता पैजामा पहन मेरे सामने आकर खड़े हो जाएँ, मुझको डांटे,मुझसे तर्क वितर्क करें....मुझे शुद्ध वाली हिंदी सिखाएं...मेरे साथ कैरम खेलें और  हमेशा की तरह मुझसे जानबूझ कर हार जाएँ.....मेरे साथ क्रिकेट खेलें और जानबूझ कर मुझे चौका जड़ने वाली गेंद फेंके...जान बूझकर मेरी गेंद पर आउट हो जाएँ...और मैं उनसे ज़िद करूँ की मेरे साथ ये जानबूझकर वाला नही सही वाला खेल खेलिए।

कभी कभी तो मन करता है की किसी नौरोज़ या होली पर खुद को रंगों में सराबोर करके उनकी आरामगाह के सामने जाकर खड़ा हो जाऊं...
शायद वो मुझे सज़ा देने ही सही एक बार बस एक बार उठकर मुझसे बात ही कर लें...मुझको बता तो दें की कौन सी नाराज़गी के चलते मुझसे बिना बात किए वो उस दिन अचानक ऐसे क्यों चले गए थे मुझे छोड़कर उस सुनसान जगह रहने...
लेकिन फिर मेरा ज़ेहन मुझे समझा ही ले जाता है कि ठहर जाओ मियां,अब वो दिन नही आने वाले ।

~इमरान~

बुधवार, 4 मार्च 2015

साक़ी मेरे

उसकी आँखों को तुमने देखा नही,

साकी तुम भी नशे में आ जाते,

रख देते कनारे बोतल को,

साकी तुम इस क़दर बहक जाते,

उसकी ज़ुल्फ़ों के पेंच ओ ख़म देखे,

साक़ी तुम भी कहीं उलझ जाते,

तुमने क़दमों पे नज़रें की ही नही

मिस्ल ए मूसा ग़शी तो खा जाते,

उसकी मुस्कानों से नूर साते था,

साकी तुम तूर से उतर आते,

ज़िन्दगी के वरक़ नए खुलते,

साक़ी तुम भी उसे जो पढ़ जाते,

वज़ऊ करते हरम में तुम बेशक,

साक़ी मयखाने में बाअदब आते....