शनिवार, 11 जुलाई 2015

जंग ए इश्क़

ना जंग ए इश्क़ में तलवार लेके हम उतरे
जिरह कोई न थी न ढाल लेके हम उतरे

चले जो सू ए मैदां तो शहसवार भी न थे
सिपाह भी साथ न थी कोई सालार भी न थे

सामने कोई लश्कर नहीं था वो अकेला था
वो मेरी जान का दुश्मन हसीं बला का था

हुआ जो वार था पहला वो उसकी जानिब से
नज़र का तीर चलाया था दिल के राकिब ने

आके सीने पे सही सिम्त वार लग ही गया
वो पहले वार में फैसला ए जंग कर ही गया

गिरे ज़मी पे तो आँखों में इक अन्धेर सा था
खुली जब आँख तो सर उनके ज़ानू पा था

मुस्कुरा के वो बोले हो जाना मुबारकबाद तुम्हें
हार के मुझसे मिला है लक़ब ए ग़ाज़ी तुम्हें

~इमरान~


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