सोमवार, 6 जुलाई 2015

आज की रात


गुज़र रही है कुछ

शबो की मानंद

अकेली तन्हा 

और उदास सी

मेरे कमरे की 

छतों को तकती

मेज़ पर पड़ी इस 

बेजान डायरी में

ज़िंदा हरुफ़ तलाशने की

नाकाम सी कोशिश करती

बीत ही रही है

तुम्हारे सिवा

फ़क़त इस एक 

पुरअम्न आसरे पर

कि शायद कल

तुम मेरे साथ रहो

लेकिन ये आज की रात

लेकिन.....

ये आज की रात.....


~इमरान~.

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