सोमवार, 25 मई 2015

डॉक्टर इंजिनियर कैसे बनते हैं?

हमेशा की तरह आज भी वो चिल्ड बियर एन्ड इंग्लिश वाइन शॉप से दो बियर के कैन लेकर के बगल वाली गली में बिल्डिंग के चबूतरे पर ही जा बैठा था....
कैन खोल कर पहला घूँट लगाया ही था की बगल में बैठे एक दूसरे बेवड़े को किसी छोटे लड़के ने सिगरेट की इक डिब्बी और छुट्टा पैसे ला कर थमा दिए,आज इस लड़के की शक्ल कुछ बदली सी लग रही थी...
ये शायद आज उसका बड़ा भाई था "ड्यूटी" पर या कोई दुसरा बच्चा था....
उसने छोटे लड़के को पास बुलाया और जेब से सौ का नोट निकाल कर उसे थमाया, लड़का इक पल को सवालिया निगाहों से उसे देखता रहा... आखिर पूछ ही लिया-

"कौन चीज? सिगरेट लाएं या नमकीन?"

नही सिगरेट है मेरे पास....इसे तुम रख लो ये तुम्हारे लिए है....

लड़का इक पल को भौंचक सा वो नोट देखता रहा.... फिर उसे जेब में डालकर ख़ुशी से उछल कर अपनी साइकिल की जानिब बढ़ने लगा...

आवाज़ देकर रोका...."बैठा राजू जावत कहाँ है"

"जी भईया बोला"

कहाँ रहते हो?मकनवा किधर है?

सिपाह की तरफ

यहां का करने आते हो

सीसीयां बीनने

अच्छा अब्बा का करते हैं?

उ बक्सा बनाते हैं

बढ़ई हैं?

ई नही मालम,बस उ बक्सा कुर्सी बनावते हैं

पढ़ते हो?

हाँ मदर आयसा में

कौन क्लास में हो?

पांचवी में भैया

एन्ड व्हाट आर योर सब्जेक्ट्स?

का???

क्या क्या पढ़ते हो? सब्जेक्ट बताओ

हिंदी अंग्रेजी गणित भूगोल नैतिक शिक्षा....

अच्छा इन बोतलों का क्या करते हो?

भंगार वाले को बेच देते हैं... फिर गुल्लक में डाल देते हैं पैसवा....

फिर जब गुल्लक भर जाता है तो अब्बा ले लेते हैं?

नहीईई....हम कपड़े खरीदते हैं....(छोटी साईकिल पर बैठते हुए) देखिए ई साइकिल भी अईसे ही खरीदे रहे...

अरे वाह.... अच्छा तुम बड़े होकर क्या बनोगे?

हम अब्बा से ज़्यादा अच्छे वाले बक्से बनाएंगे...

डॉक्टर,इंजिनियर नही बनोगे?

वो कैसे बनते हैं?

लड़के के इस सवाल ने उसका नशा हिरन कर दिया ता
लाजवाबी के आलम में बात पलटते हुए उसने कहा

अच्छा तुम्हारा नाम क्या है?

हमरा नाम पप्पू....नानी लेकिन हमें मुन्ना ही कहत हीं..

पैडल मरते हुए लड़का आगे बढ़ गया था.... उसने बियर का दूसरा कैन खोला....पहले वाले का नशा हवा हो चुका था...आज तीसरा खरीदना पड़ा उसे...

~इमरान~

शनिवार, 23 मई 2015

इबादत ए इश्क़

हमने कहा इश्क़ करें
वो बोली
हुआ जाया चाहता है
वक़्त ए इबादत जाना
देखो देता है मुसलसल
ये मुअज्ज़िन भी अज़ाँ
फिर कहा मैंने
हमारा इश्क़ भी तो
है इक इबादत है मेरी जां.....
इबादत जिसमे कि
इन्सां के वजूद से
मिल जाता है
इक वजूद ए इन्सां,
इबादत जिसमे
दो ज़ेहन
हो जाया करते हैं
मुसलसल यकजां
और इंसान के वजूद से 
मिल जाये कोई
दूसरा इन्सां
गर इससे बेहतर
इबादत हो कोई
तो बता देवे हमे
उम्मत ए मुस्लिमां

~इमरान~

मेराज ए इश्क़

किसी नज़्म की
या किसी बहार की सूरत
तुम कुछ इस तरह
तैर जाते हो
ज़ेहन में मेरे
कि ज़ेहन की
ज़रखेज़ ज़मीं में,
इश्क़ के तलातुम
किसी ज़लज़ले की सूरत
प्यार के इंक़लाब से
उमड़ आते हो
तूफ़ान ए इश्क़ फिर
ज़हन में मेरे
कर देते हो बरपा
हमारे अलहदा
वजूद ए मजाज़ी को
कर के यकजां
इत्र से इश्क़ के,
मोअत्तर कर जाते हो
ज़ेहन को हमारे
फिर हो ही जाती है
इश्क़ की ताज़ा
कोई मेराज अता .....

~इमरान~

गुरुवार, 21 मई 2015

खामोश मुहब्बत

आसान क्या है ?
इस दुनिया में,
सबसे आसाँ अगर,
कुछ है तो बस,
खामोश हो जाना
उसी ख़ामोशी में,
बिन कहे
सब कह जाना
सबसे आसाँ है
अल्फ़ाज़ों के बिना
एक अजब ही
अनकही अनसुनी सी
मन को
गुदगुदा देने वाली
कोई इंतेहाई हसीं सी
नज़्म लिख जाना
इस जहाँ में
सबसे आसान
बस यही है साथी
बिना अल्फ़ाज़ों के
इक खामोश सी
मुहब्बत कर जाना....

~इमरान~

रविवार, 17 मई 2015

तुमने क्या खूब किया

अब तक तो आती थीं
मेरे सामने तुम
महज़ लफ़्ज़ों मे
या किताबों पर उकेरी
किसी इबारत की सूरत
कहीं किसी जलसे में
बजते इंकलाबी गीतों में
उसके अजब किस्से मुझे
सुना दिया करती थीं तुम
उसको यूँ ही गुनगुनाते हुए
अब तो सरासर लेकिन
तुम आने लगी हो
सीधे मेरे ख्वाबों तक
लेकर के इस निज़ाम
और इसके मुहाफिजों के
सारी करतूतों के पन्ने
मेरे सोते ज़ेहन को
उनके नोकीले भालो की चुभन
सुनाने दिखाने लगी हो
कविता की दुनिया से
ख्वाबों की दुनिया तक
ख्वाबों के दिखाये जाने से
उन्हें सच करने की
जद्दोजहद के शुरू होने तक
बिलआखिर तुमने
उसका नाम सच कर ही दिखाया न
बाँध कर मुझको
सच्चाई के "पाश" से
आज़ादी के हक़ीक़ी मायनों का
साफ़ ओ शफ्फाक रास्ता
दिखा ही दिया न...
...
तुमने क्या खूब किया....

~इमरान~

सोमवार, 11 मई 2015

क़ुदरत की शिकायत

क्या आपको लगता है प्रकृति अपनी असीम देनों के लिए हमसे कभी शिकायत नही करती? शायद आपसे न करती हो...लेकिन मुझसे तो अक्सर करती है.....

कल सारी रात बूँद ने मुझसे हम सबकी शिकायत की है....धरती पर आते आते उसका मन उचाट हो रहा था....उसका मन था कि बादल के दामन में ही रह जाये वो....भला धरती पर जाए भी तो आखिर किस मक़सद से?..... किस उम्मीद से?

क्या धरती पर मौजूद उन खून की बूंदों को धोने के लिए जो तुम आये दिन बहाया करते हो? क्या उन आंसुओं में मिल जाने के लिए जो तुम उन आँखों को दिया करते हो जो रात दिन अपनी मेहनत से तुम्हारे महल खड़े किया करते हैं?....

नहीं....ये बूँद तो चली थी ज़मीन को एक नया सृजन देने..... नए जन्म देने के लिए...नए जीवन का संदेसा लेकर.... लेकिन तुमने उसे कैसी जगह दी.....गैर बराबरी की जगह....जहाँ इंसान को इंसान उसकी आदमियत से नही बल्कि मालियत ओ मिलकियत से समझा जाता है....


उसका तो मन था कि वो बादल के पास वापस लौट जाये....ऊंचाई से इतनी हसीन दिखने वाली तुम्हारी ये सजीली सी दुनिया उसे नज़दीक आते आते कितनी डरावनी सी लगने लगी की एक बार तो उसने तुम्हारे पास आने का इरादा ही तर्क कर दिया था....फिर बादल ने उसे संभाला

काश तुमने सूना होता....बूँद बादल से क्या कहती है....उसके लफ्ज़ तुम्हारे कानों में पड़े होते तो तुम भी सुनते....कि उसने बादल से कहा....
अये मेरे अज़ीज़...ये तुम मुझे किस तरफ भेजते हो...ये भला मेरा किस तरह इस्तेकबाल करेंगे....खून के धब्बे धुलने के लिए?....मेरे पनाह देने वाले बादल....मुझे इनके बदले बेहतर लोग दे और इन्हें मेरे बदले बुरी नेमतें आता कर.....
लेकिन बादल तो फिर बादल था.... उसे समझाता है....तू ठीक कहती है.... लेकिन ज़रा उन आंसुओं से भरे चेहरों की भी तो सोच...जो तेरी आमद के ना जाने कब से मुन्तज़िर हैं...जाकर उनके आंसुओं को कौन पोछेगा जो तू हिम्मत हार गयी तो....ज़मीन का सीना चीर कर दुनिया के पेट भरने का इंतज़ाम करने वाले तेरे इंतज़ार में पलक पावड़े बिछाए कब से तेरी बिरहा के गीत गा रहे हैं....इन्हें देख तो सही....तेरे सिवा कौन इनकी तकलीफ दूर कर सकेगा....मुझे बता उसका पता फिर मैं उसी को भेज देता हूँ....

बूँद ने अनमने भाव से एक बार फिर नीचे देखा...
उसके चेहरे पर विस्मय का एक भाव आया और अचानक खिलते फूल की कली जैसी मुस्कान ने उस भाव को अपनी अंजुली में भर कर कहीं छुपा सा लिया....
बादल को आखिरी बार मुस्कुराते हुए आँख में आंसू भरके उसे अंतिम अलविदा बोल वो सीधे उन आंसुओं वाले चेहरों की जानिब बढ़ चली..

मुझको कागज़ की खुशबु भी बड़ी रूमानी लगती है....इसमें से इश्क़ की बू आती है....क़ुरबानी की गन्ध होती है इसमें....उन हज़ारों ज़िन्दगियों की क़ुरबानी जो खामोश ही सही लेकिन बिलआखिर हुआ तो ज़िंदगियाँ ही करती हैं.....ऐसा लगता है मानो इनमे से कोई ज़िन्दगी आवाज़ दे रहा हो....हमसे कुछ कहना चाहती हो....कि देखो हमारी क़ुरबानी की लाज रख लेना...हमने अपना जिस्म देकर तुम्हें ये कागज़ बख्शा है.....इसपर ऐसे लफ्ज़ ही लिखना जिनसे दुनिया बेहतरी की जानिब गामज़न हो सके....

देखो हमारे जिस्म के टुकड़े काट कर जो वरक़ बनाते हो,अपने आराम के लिए जो ये हमारा क़त्ल करते हो, इनसे तुम नफ़रतें मत फैलाया करो तो कितना अच्छा हो...इनको प्यार मुहबत का ज़रिया बनाओ....हदें तोड़ो नई सीमायें न क़ायम कर लिया करो तो कितना बेहतर हो....तल्खियों के बीज क्यों बो देते हो इनके ज़रिये....हमारे बलिदान को शर्मिन्दा क्यों कर देते हो.....

लगातार मेरे कानों में ये बेजान कागज़ फुसफुसाया करता है और फिर मैं वाक़ई बेक़सूर बेगुनाह होते हुए भी शर्मिन्दा हो जाता हूँ....

क्योंकि उस वक़्त उस शिकायती आवाज़ के सामने मैं....महज़ मैं इमरान रिज़वी नहीं खड़ा होता....उसके सामने खड़ा होता है इक इंसान....जिसे जवाबदेह बनाया जा रहा होता है और जिससे शिकवा किया जा रहा होता है पूरी इंसानी ज़ात के खराब कर्मों के लिए....और फिर मैं......मैं लाजवाब होकर दरख़्त के क़दमों में गिर जाता हूँ....फ़क़त इतना कहकर...हमें माफ़ कर देना....हम नहीं जानते हम क्या कर रहे हैं.....

लिखने का मक़सद यह है कि यह प्रकृति ने मानव जाति को कितने तोहफे दे रखे हैं....जो हम इनका सदुपयोग करना सीख सकते तो कितना अच्छा होता...

काश हमने इन तोहफों का उपयोग धरती को रहने लायक एक बेहतर जगह बनाने के साधन के रूप में किया होता...लेकिन नहीं....हम तो मगरूर हैं खुद के प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना होने के दम्भ में....

पता नहीं यह गुमान इंसान को कब हुआ...की वो सर्वश्रेष्ठ है.....पता नहीं इस गुमान के चलते दुनिया को हमने कब बद से बदतर करना शुरू कर दिया....पता नहीं इस गुमान से हम बाहर कब निकलेंगे....जब निकलेंगे तब तक हमारे पास रखने को कुछ बचेगा भी या नहीं.....भविष्य के गर्भ में हमने किन बीजों का रोपण किया है और उससे क्या पैदा होने वाला है....प्रकृति के सब्र का बांध जिस दिन टूट गया उस दिन क्या होगा?

बस... यही सोच कर अक्सर मन कांप उठता है.....

~इमरान~

ज़िन्दगी ढोवत हैं साहब

शाम ढल जाना चाहती थी...,सूरज, सफेद से लाल हो चला था...एक बूढा भिश्ती अपनी पीठ पर दो पानी के मश्क लादे धीमी गति से कहीं चला जा रहा था.....
रास्ते में एक शानदार हवेली पड़ती थी...उस आलीशान ईमारत के सामने एक लगभग पचास बरस का शख्स अपने पन्द्रह बरस के बच्चे के साथ खड़ा हुआ था...
बाप बेटे में कुछ बातचीत चल रही थी कि उसी वक़्त हवेली के अंदर से बच्चे का चचा बाहर निकला और दोनों भाइयों में किसी अहम मामले को लेकर गुफ्तगू होने लगी...
इस दौरान छोटा लड़का बाहर रास्ते पर लोगों को आते जाते देखने लगा...उस की नज़र सामने से पीठ पर पानी की दो मश्क लादे जा रहे एक भिश्ती पर पड़ी...बच्चे ने रौबीले से अंदाज़ ओ लहजे में बूढ़े से पूछा-
ये क्या ढोकर ले जाते हो?

"जिन्दगी ढोवत हैं मियां साहब...."

इतना भर कह वो बूढा आगे बढ़ गया.... बच्चे का चचा अब वापस जा चुका था.... वो फ़ौरन भागा भागा अपने बाप के पास गया और पुछा-

"अब्बा, ये सामने देखें.. जो बूढा जा रहा है ये कौन है?

हाँ बेटा,ये भिश्ती होते हैं,

और ये क्या सामान ढोते हैं?

ये पानी पहुंचाते हैं सब जगह...अभी भी अपनी पीठ पर लदी मशक में ये पानी ढोकर ले जा रहा है

फिर उसने मुझसे ये क्यों कहा की वो ज़िन्दगी ढोता है?

इस सवाल ने बाप के चेहरे की मुस्कराहट खत्म कर दी थी.....लहजे में नरमी को खत्म करके और बिना सख्ती लाये उसने बेटे को जवाब दिया...

"बेटा...पानी को ज़िन्दगी इसलिए कहा जाता है क्योंकि उसके बिना हम ज़िंदा नही रह सकते....इसीलिए उसने तुमसे कह दिया कि वो ज़िन्दगी यानी पानी ढोता है....चलो अब मगरिब का वक़्त हो चला है अज़ान होने वाली है, तुम अंदर जाओ और नमाज़ की तयारी करो...मैं भी आता हूँ..

बच्चा जिज्ञासू था..... उसने फिर पूछा- लेकिन अब्बा वो सीधे सीधे यह भी तो कह सकता था की वो पानी ले जा रहा है...उसने ज़िन्दगी ही क्यों कहा?

बच्चे मन की जिज्ञासा तो अभी बाकी थी  लेकिन बाप के सब्र का बाँध टूट चुका था....बेटे को झिड़क कर अंदर भेज दिया...

लेकिन भिश्ती के पानी ढोने और ज़िन्दगी ढोने के दरमियान का फर्क और उसके जवाब के पीछे का दर्द उस बाप में कहीं मौजूद इंसान के अंदर अंदर अजीब सी शर्मिंदगी पैदा करने लगा था...

उस बूढ़े की मुस्कुराती आँखों और सौम्य जवाब की वजह से उसके बेटे के बालमन में जागा सवालों और जज़्बातों का तूफ़ान और उन सवालों के पूछते वक़्त बेटे की आँखों में उस बूढ़े के लिए अजब सी मुहब्बत और अब्बा के जवाबों का कौतुहल और फिर आखिर में उसका अपने बेटे को झिड़क कर अंदर भगा देना और इस झिड़कने से बेटे की आँख से गिरी आंसू की बूँद........!!!

ये सब मिलकर उसके ज़ेहन में एक अजीब सी हलचल पैदा करने लगे थे....ये हलचल किसी तूफान में बदलती उसके पहले ही अज़ान की आवाज़ आ गई,बच्चा वज़ू बनाये नमाज़ के लिए तैयार बाहर आ चुका था, उसकी आँखों में बूढ़े की तैरती शक्ल, बाप की डांट का खौफ और अंतर्मन की बाकी रह गयी जिज्ञासा और बेजवाब रह गए सवालों का मिला जुला भाव (जिसके लिए आप जो मुनासिब समझें लफ्ज़ चुन लें,अभी मेरे पास वो लफ्ज़ नही हैं,जब आएगा तो बता दूंगा...) अभी भी मौजूद था......

बाप ने बेटे की आँखों में देखना चाहा तो ज़रूर , लेकिन आँख न मिला  पा रहा था...
बहरहाल....दोनों ने मस्जिद का रुख किया....लेकिन पता नही क्यों बार बार वो शख्स मुड़कर अपनी हवेली के फाटक की तरफ देखता.....इधर अज़ान अपने आखिरी चरण में पहुँच चुकी थी..., अपने ज़ेहन के ख्यालों के बवंडर को उसने एक मर्तबा झटक के बाहर फेंकने की कामयाब या नाकाम सी कोशिश की और क़दमों में तेज़ी लाते हुए मस्जिद की जानिब बढ़ चला....

दरअसल..... उसे अपने घर की आलिशान दीवारों से खून टपकता नज़र आने लगा था....

~इमरान~