अब तक तो आती थीं
मेरे सामने तुम
महज़ लफ़्ज़ों मे
या किताबों पर उकेरी
किसी इबारत की सूरत
कहीं किसी जलसे में
बजते इंकलाबी गीतों में
उसके अजब किस्से मुझे
सुना दिया करती थीं तुम
उसको यूँ ही गुनगुनाते हुए
अब तो सरासर लेकिन
तुम आने लगी हो
सीधे मेरे ख्वाबों तक
लेकर के इस निज़ाम
और इसके मुहाफिजों के
सारी करतूतों के पन्ने
मेरे सोते ज़ेहन को
उनके नोकीले भालो की चुभन
सुनाने दिखाने लगी हो
कविता की दुनिया से
ख्वाबों की दुनिया तक
ख्वाबों के दिखाये जाने से
उन्हें सच करने की
जद्दोजहद के शुरू होने तक
बिलआखिर तुमने
उसका नाम सच कर ही दिखाया न
बाँध कर मुझको
सच्चाई के "पाश" से
आज़ादी के हक़ीक़ी मायनों का
साफ़ ओ शफ्फाक रास्ता
दिखा ही दिया न...
...
तुमने क्या खूब किया....
~इमरान~
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