रविवार, 14 जून 2015

सूखे आंसू

आँखों से निकलते हैं
सूखे आंसू अक्सर
और इन
सूखे आंसुओ में
होता है कई
मलाल हमेशा
मलाल किसी को
समझ न पाने का
तो कभी
समझ के भी
दूर चले जाने का
दर्द करता रहता है
तवाफ़ मेरा अक्सर
लेकिन मक़ाम इसका
मुझे होता नही मालूम
गिले शिकवे भी
रहते हैं इनमे
कसरत से
कुल मिलाके
नज़ारा खुद के ये
आईने का होता है
ये आइना भी
ज़रूरी है देखना इतना
बगैर देखे इसके
निकल सकते नही
बाहर घर के

~इमरान~

मंगलवार, 9 जून 2015

ग़ालिब फिर भी ग़ालिब ही रहे


बहुत कम लोग यह बात जानते हैं कि मिर्ज़ा असदुल्लाह खां उर्फ़ "ग़ालिब" घोर अन्धविश्वासी भी थे ,अपनी बीमारी और बुढापे से तंग उर्दू फ़ारसी का यह अज़ीम शायर समय समय पर अपनी मौत की तारीख़ "मुर्द ए ग़ालिब" निकाला करता था, एक बार ऐसे ही उन्होंने अपनी मौत की तारिख निकाली,
इस नयी तारिख को देख उनके एक शागिर्द "जवाहर सिंह जौहर" ने कहा -"हज़रत,परवरदिगार ने चाहा तो यह माद्दा भी ग़लत साबित होगा"-
इसके पहले भी उनकी निकली कई तारीखें गलत साबित हो चुकी थीं,जौहर की बात सुनकर ग़ालिब बोले-"देखो साहब तुम ऐसी बद फाल (अपशकुन) मुंह से ना निकालो , अगर यह माद्दा ए तारीख भी गलत साबित हुआ तो मैं सर फोड़ के मर जाऊंगा"....
मिर्ज़ा ग़ालिब और बदकिस्मती दोनों हमेशा साथ-साथ चला किए,रईस घराने में पैदा हुए असद पर एक वक़्त वो भी आया जब पूरी पेंशन न मिलने के कारण उन्हें मुफलिसी में गुजर-बसर करना पड़ी, जिंदगी के सुनहरे दिनों में भी वो सिर से पांव तक कर्ज में डूबे रहे, रोज-ब-रोज दरवाजे पर कर्जख्वाहों के तकाज़े मिर्ज़ा और उनकी बेगम को परेशान करते रहे, एक वक्त ऐसा भी आया जब मिर्ज़ा के खिलाफ अदालती डिक्रियां निकलने लगी, इन सब वजहों से उनका जीवन हमेशा तनावों से घिरता रहा, मगर क्या मजाल थी कि इस महानतम फनकार को अपने फन से कोई दुनियावी तकलीफ जुदा कर पाती, यहां तक कि इन सब तनावो के बीच मिर्जा गालिब अपने नन्हें-नन्हें बच्चों को फौत होते देखते रहे और अंदर ही अंदर रोते रहे,
उनकी कलम से निकला यह शेर हकीकत में उनकी ज़िन्दगी की साफ़ तस्वीर पेश करता है...
(1)मेरी किस्मत में ग़म अगर इतना था,
दिल भी या रब कई दिये होते...
(2)ज़िन्दगी अपनी इस शक्ल से गुजरी ग़ालिब
हम भी क्या याद करेंगे की खुदा रखते थे
ग़ालिब के सात बच्चे हुए पर कोई भी पंद्रह महीने से ज्यादा जीवित न रहा. उनकी पत्नी की बड़ी बहन को दो बच्चे Kहुए जिनमें से एक ज़ैनुल आब्दीनखाँ को ग़ालिब ने गोद ले लिया था.
वह बहुत अच्छे कवि थे और 'आरिफ' उपनाम रखते थे. ग़ालिब उन्हें बहुत प्यार करते थे और उन्हें 'राहते-रूहे-नातवाँ' (दुर्बल आत्मा की शांति) कहते थे. दुर्भाग्य से वह भी भरी जवानी(36 साल की उम्र) में मर गये. ग़ालिब के दिल पर ऐसी चोट लगी कि जिंदगी में उनका दल फिर कभी न उभरा. इस घटना से व्यथित होकर उन्होंने जो ग़ज़ल लिखी उसके कुछ शेर :
लाजिम था कि देखो मेरा रस्ता कोई दिन और,
तनहा गये क्यों अब रहो तनहा कोई दिन और ,
आये हो कल और आज ही कहते हो कि जाऊँ,
माना कि नहीं आज से अच्छा कोई दिन और,
जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे,
क्या खूब क़यामत का है गोया कोई दिन और

तुम बिलकुल उर्दू जुबां सी हो

तुम बिलकुल
उर्दू ज़ुबाँ सी हो
की तुम्हारे
होंटो में शीरीनी,
आँखों में शबनम
और हाथों में लम्स,
सीने पर राहत
और दिल में अमन,
और उस अम्न में,
मैं बसा करता हूँ,
कि तुममे बसने से ,
मक़सद मिला करता है,
बिलकुल उर्दू ज़ुबाँ सा,
एहसास हुआ जाता है,
एहसास जिसमें डूब कर,
उतर जाने से,
रूह ए नातवां को,
राहत सी मिला करती है,
दिल ए बे गुमां को,
एक गुमां हो जाता है,
गुमाँ जो,
सच जैसा है,
दरअसल सच ही तो है,
कि तुम
ज़िन्दगी हो मेरी,
ज़िन्दगी जो
बसती है मुझमे,
जो मेरे वजूद में
जिया करती है,,
उर्दू की तरह
इठलाती सी,
सिमट जाया करती है,
वजूद में मेरे


~इमरान~

दिल की आवाज़ का जवाब

मेरे दिल की
आवाज़ का जवाब
हर बार जो
पलट आती थी
कहीं किसी 
निर्वात से टकराती
लौट आया करती थी
तनहा अकेली सी
इस बार वो आई है
मय इक जवाब के
जवाब की शक्ल में
एक मुस्कुराता चेहरा
एक जोड़ी मासूम आँखें
और इक प्यारा
अपना सा लगता
हंसीं वजूद लेकर
आवाज़ पलटी तो है
वो लौटी भी है
इस बार मगर
तन्हा नहीं
मेरे दिल के लिए
आई है वो
अमन लेकर.....
~इमरान~

हेलमेट और मेरी आपबीती

लगभग 4 साल पहले की बात है,मैं अपनी बजाज सीटी हंड्रेड मोटरसाइकिल पर लखनऊ से वापस जौनपुर आ रहा था ।
आमतौर पर मैं हेलमेट का प्रयोग नही करता, जौनपुर से लखनऊ जाते वक़्त भी पूरे रास्ते बिना हेलमेट के ही गया था लेकिन वापसी चूँकि शाम की थी और पहुँचते पहुँचते रात हो जानी थी अतः कुछ सोचकर वहीं रास्ते से एक हेलमेट खरीदी और पहन ही ली ।
4 बजे लखनऊ से जौनपुर के लिये निकला और 6 या 6:30 पर सुल्तानपुर रोड तक पहुँच गया था, अब तक हल्का हल्का अँधेरा हो चला था ।
उसी रोड पर एक ढाबे से थोडा आगे काफी गिट्टी बिछी हुई थी और मैं लगभग 70-80 की स्पीड में था, किस्सा मुख़्तसर यह कि मोटरसाइकिल के अगले पहिए के नीचे कमबख्त एक गिट्टी कहीं से आ धमकी और मुझे पता ही नही चला कि कब गाडी मुझे लेकर दायीं तरफ गिर गयी ,कुछ एक दो मिनट में ही बेहोश हो गया था ।
आँख अस्पताल में खुली, दायें कन्धे की कॉलर बोन तीन जगह से टूट चुकी थी,उसकी हड्डी खाल को चीर कर बाहर झाँक रही थी,बाक़ी शरीर पर भी मामूली चोटें आयीं थीं ।
तीन दिन बाद आपरेशन हुआ...हड्डी में ड्रिलिंग करके चार एक्सटर्नल स्पोर्ट लगाये गए जो पूरे एक महीने तक लगे रहे ।
इस घटना के लगभग एक हफ्ते बाद बाद दादा ने मुझे मेरा हेलमेट दिखाया जिसके बींचोबीच एक लम्बा सा लेकिन हल्का क्रैक पड़ा हुआ था।
एक्सीडेंट की खबर सुन अगले दिन ही दुबई से सीधे लखनऊ उतर आये चाचा पास ही खड़े थे,उनके कहे शब्द आज भी याद हैं-
" इसे देख रहे हो बेटा?ये अगर न होती तुम्हारे सर पे....तो जानते हो इसकी जगह कहाँ पर क्रैक आता?"
~इमरान~

क़ब्ल तुम्हारे

तुम्हारे आने से पहले इश्क़ पर शायरी कविता ग़ज़ल या नज़्म न लिखी थी कभी....
गुज़री अकतूबर में तुम आयीं और इस अफ़सानानिगार इस किस्सानवीस को शायर बना दिया तुमने....
इस ज़ेहन से इश्क़ पर निकली हर शायरी में बस तुम ही बसती हो सिर्फ तुम ही रहती हो....
उस पर तुर्रा यह की सिवाए तुम्हारे किसी और के लिए ज़ेहन से कलाम निकलता ही नही....लाख कोशिश के बाद भी मेरी शोना...
तुम्हारे जाना की नज़्मों में महज़ तुम ही आती हो और तुम ही आती रहोगी । 
जब जब मेरी क़लम इश्क़ लिखेगी उसका मतलब फ़क़त तुम होगी.....
मेरी नज़्मों की किताब गर कभी आई तो वो तुमको ही समर्पित होगी....उसके कवर पेज पर तुम्हारे उन हसीं क़दमों की तस्वीर होगी जिनको मैंने बारहां चूमा है और सजदे किये हैं ।
इक बेनाम कहानीकार से गुमनाम शायर बना दिया मुझको....जाने तुममे क्या बात , क्या सुकूँ,क्या अम्न है.....
सिर्फ तुम्हारा...~इमरान~

कैसी साहिब से रवादारी है

जो सुरक्षा श्रेणियाँ और सुविधाएं आज संघ परिवार और उससे जुड़े लोगों को मिल रही हैं वो कल तक गांधी परिवार एन्ड कंपनी को मिलती थीं,
जो आर्थिक नीतियां मनमोहन सरकार द्वारा तय की गयी थीं और जिन्हें वो ज़ख्म पर फूंक फूंक कर कुरेदने की मानिंद गरीब जनता पर लाद रहे थे आज उन्ही नीतियों को निर्ममता और बेदर्दी से नमक लाल मिर्च छिड़क के मोदी आगे बढ़ा रहे हैं ।
मेहनतकश उत्पादक तबका उस वक़्त भी वंचित और शोषित था आज भी है,कुछ लोग हैं जो अब इतना हल्ला मचा रहे हैं पिछले दस साल तक उनके राजनैतिक पूर्वाग्रहों ने उनके मुँहों पर लिंक लॉक के मज़बूत ताले डाले हुए थे..
खैर अभी तो महज़ एक साल हुआ है इस सरकार को,अभी तो आँख से खून के आंसू निकलना बाकी हैं।
इन सबके बीच "भक्तजन" आज भी हर हर मोदी ही कर रहे हैं, ठीक उसी तरह जैसे दस साळ आप लोग सोनिया जी राहुल जी ज़िंदाबाद करते रहे थे ।
बहरहाल सुबह बखैर की विश के साथ इक ताज़ा ताज़ा अभी लिखा चार मिसरा आपकी नज़र करते हैं....मेंथी के परांठे तैयार हैं आप इसे पढ़िए हम अभी आये ।
कैसी साहेब से रवादारी है
सिलसिला ए अश्क़ दिल से जारी है
फिर भी खामोश मुस्कुराता है
क्या गज़ब तेरी वफादारी है
~इमरान~

तुम तन्हा नही हो

रातें होती हैं
कई नींद से खाली
कभी सांसो से
होता है नदारद जीवन,
इसका मतलब मगर
हरगिज़ ये नही ,
की न आएगी
सुबह उजली कोई जाना
तुम सुनो मेरी बात
इक काम करो तुम
अपने दिल की सभी
तल्ख और तकलीफदेह
यादों को माज़ी की
मेरे हवाले कर दो
मैं इन्हें दफ़्न ज़मीं में करके
सुबह ए नौ की
तज़ादमी के सारे लम्हात
उतार दूंगा तुममें
चीनी मिटटी के कप में फिर
किसी गर्म चाय की मानिंद
उलट के तुम्हारे दर्द
सारी टीसें और तकलीफें
पी जाया करूंगा
ये अवसाद की पैरहन
फैंक वीरान किसी सहरा में
लिपट के मेरे काँधे से
तुम जी भर के किया करना
शिकवा ए अमन जाना
मैंने किया है न
सच्चा वादा तुमसे,
कोई तकलीफ तुम्हे,
सहने दूंगा नहीं तन्हा जाना....
~इमरान~

शनिवार, 6 जून 2015

ज़मीं पा कब उतरोगे साथी

तुम आखिर
कितना लिखोगे साथी
ये सिद्धांत वो प्रयोग
यह दल वो दलदल
ये लाइन पर हैं
तो वो बे-लाइन के
तुम आखिर कब तक
और कितना लड़ोगे साथी
ट्रेड यूनियन की तुम्हारी
ये सालाना हड़तालें
तुम्हारे ये समझौतावादी संघर्ष
तुम आखिर कब सुधरोगे
तुम कितना पढ़ोगे साथी
अच्छा इतना ही बता दो
कि इतना पढ़ लिखकर
मार्क्सवाद के प्रोफ़ेसर बन
तुम आखिर क्या करोगे साथी,
नक्सलबाड़ी से कुछ
बूढी माओं ने अपनी
पथराई सी आँखों से
तुम्हे भेजा है लाल सलाम
उसका जवाब कब दोगे साथी
खुद को माओवादी कहकर
क्यों शर्मिन्दा करते हो
तुम माओ की शिक्षा को,
उनकी वास्तविक शिक्षा पर
तुम आखिर कब चलोगे साथी
एक साइंसी तजुर्बे के साथ
उन मज़दूरों के बीच
शोषितो वंचितों पिछड़ों
और इन दलितों के पास
तुम आखिर कब जाओगे साथी
क़लम बहुत घिस चुके हो
अब किताबें पलटना भी
बंद ही कर दो तुम
मुझे तो बस इतना बता दो
ज़मीं पर कब उतरोगे साथी
ज़मीं पर कब उतरोगे साथी....

~इमरान~

ज़मीं पा कब उतरोगे साथी

तुम आखिर
कितना लिखोगे साथी
ये सिद्धांत वो प्रयोग
यह दल वो दलदल
ये लाइन पर हैं
तो वो बे-लाइन के
तुम आखिर कब तक
और कितना लड़ोगे साथी
ट्रेड यूनियन की तुम्हारी
ये सालाना हड़तालें
तुम्हारे ये समझौतावादी संघर्ष
तुम आखिर कब सुधरोगे
तुम कितना पढ़ोगे साथी
अच्छा इतना ही बता दो
कि इतना पढ़ लिखकर
मार्क्सवाद के प्रोफ़ेसर बन
तुम आखिर क्या करोगे साथी,
नक्सलबाड़ी से कुछ
बूढी माओं ने अपनी
पथराई सी आँखों से
तुम्हे भेजा है लाल सलाम
उसका जवाब कब दोगे साथी
खुद को माओवादी कहकर
क्यों शर्मिन्दा करते हो
तुम माओ की शिक्षा को,
उनकी वास्तविक शिक्षा पर
तुम आखिर कब चलोगे साथी
एक साइंसी तजुर्बे के साथ
उन मज़दूरों के बीच
शोषितो वंचितों पिछड़ों
और इन दलितों के पास
तुम आखिर कब जाओगे साथी
क़लम बहुत घिस चुके हो
अब किताबें पलटना भी
बंद ही कर दो तुम
मुझे तो बस इतना बता दो
ज़मीं पर कब उतरोगे साथी
ज़मीं पर कब उतरोगे साथी....

~इमरान~