बहुत कम लोग यह बात जानते हैं कि मिर्ज़ा असदुल्लाह खां उर्फ़ "ग़ालिब" घोर अन्धविश्वासी भी थे ,अपनी बीमारी और बुढापे से तंग उर्दू फ़ारसी का यह अज़ीम शायर समय समय पर अपनी मौत की तारीख़ "मुर्द ए ग़ालिब" निकाला करता था, एक बार ऐसे ही उन्होंने अपनी मौत की तारिख निकाली,
इस नयी तारिख को देख उनके एक शागिर्द "जवाहर सिंह जौहर" ने कहा -"हज़रत,परवरदिगार ने चाहा तो यह माद्दा भी ग़लत साबित होगा"-
इसके पहले भी उनकी निकली कई तारीखें गलत साबित हो चुकी थीं,जौहर की बात सुनकर ग़ालिब बोले-"देखो साहब तुम ऐसी बद फाल (अपशकुन) मुंह से ना निकालो , अगर यह माद्दा ए तारीख भी गलत साबित हुआ तो मैं सर फोड़ के मर जाऊंगा"....
मिर्ज़ा ग़ालिब और बदकिस्मती दोनों हमेशा साथ-साथ चला किए,रईस घराने में पैदा हुए असद पर एक वक़्त वो भी आया जब पूरी पेंशन न मिलने के कारण उन्हें मुफलिसी में गुजर-बसर करना पड़ी, जिंदगी के सुनहरे दिनों में भी वो सिर से पांव तक कर्ज में डूबे रहे, रोज-ब-रोज दरवाजे पर कर्जख्वाहों के तकाज़े मिर्ज़ा और उनकी बेगम को परेशान करते रहे, एक वक्त ऐसा भी आया जब मिर्ज़ा के खिलाफ अदालती डिक्रियां निकलने लगी, इन सब वजहों से उनका जीवन हमेशा तनावों से घिरता रहा, मगर क्या मजाल थी कि इस महानतम फनकार को अपने फन से कोई दुनियावी तकलीफ जुदा कर पाती, यहां तक कि इन सब तनावो के बीच मिर्जा गालिब अपने नन्हें-नन्हें बच्चों को फौत होते देखते रहे और अंदर ही अंदर रोते रहे,
उनकी कलम से निकला यह शेर हकीकत में उनकी ज़िन्दगी की साफ़ तस्वीर पेश करता है...
(1)मेरी किस्मत में ग़म अगर इतना था,
दिल भी या रब कई दिये होते...
दिल भी या रब कई दिये होते...
(2)ज़िन्दगी अपनी इस शक्ल से गुजरी ग़ालिब
हम भी क्या याद करेंगे की खुदा रखते थे
हम भी क्या याद करेंगे की खुदा रखते थे
ग़ालिब के सात बच्चे हुए पर कोई भी पंद्रह महीने से ज्यादा जीवित न रहा. उनकी पत्नी की बड़ी बहन को दो बच्चे Kहुए जिनमें से एक ज़ैनुल आब्दीनखाँ को ग़ालिब ने गोद ले लिया था.
वह बहुत अच्छे कवि थे और 'आरिफ' उपनाम रखते थे. ग़ालिब उन्हें बहुत प्यार करते थे और उन्हें 'राहते-रूहे-नातवाँ' (दुर्बल आत्मा की शांति) कहते थे. दुर्भाग्य से वह भी भरी जवानी(36 साल की उम्र) में मर गये. ग़ालिब के दिल पर ऐसी चोट लगी कि जिंदगी में उनका दल फिर कभी न उभरा. इस घटना से व्यथित होकर उन्होंने जो ग़ज़ल लिखी उसके कुछ शेर :
वह बहुत अच्छे कवि थे और 'आरिफ' उपनाम रखते थे. ग़ालिब उन्हें बहुत प्यार करते थे और उन्हें 'राहते-रूहे-नातवाँ' (दुर्बल आत्मा की शांति) कहते थे. दुर्भाग्य से वह भी भरी जवानी(36 साल की उम्र) में मर गये. ग़ालिब के दिल पर ऐसी चोट लगी कि जिंदगी में उनका दल फिर कभी न उभरा. इस घटना से व्यथित होकर उन्होंने जो ग़ज़ल लिखी उसके कुछ शेर :
लाजिम था कि देखो मेरा रस्ता कोई दिन और,
तनहा गये क्यों अब रहो तनहा कोई दिन और ,
आये हो कल और आज ही कहते हो कि जाऊँ,
माना कि नहीं आज से अच्छा कोई दिन और,
जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे,
क्या खूब क़यामत का है गोया कोई दिन और
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