रविवार, 21 सितंबर 2014

हालात ए हाज़िरा-पार्ट 1

रूहानी इलाज करवाइए,चौबीस घंटो में शर्तिया इलाज,नौकरी व्यापर प्रेम वशीकरण से लेकर सौतन से मुक्ति तक,सब इलाज हैं बाबा के पास,बाबा के पास जिनों/परियों को वश में करने की कला भी है, कितने जिन बाबा की ऊँगली के इशारों पर नाचते हैं...दूर दूर से बाबा के पास भक्त आते हैं,हजारों लोगों को फायदा हुआ है
बाबा के मुंह से बात निकलते ही पूरी हो जाती है, बाबा कैंसर,पथरी,नजला खांसी बुखार,अंग प्रत्यारोपण जैसे मसलों पर अपना इल्म इस्तेमाल नहीं करते,
अभी कुछ ही दिनो पहले की बात है एक छोटे लड़का कार की चपेट में आकर अपनी एक टांग गँवा बैठा, बाबा चाहते तो किसी जिन या परी से कहकर उसके एक वैसे ही दूसरी टांग पैदा कर देते,लेकिन नहीं की,
पूरी दुनिया एड्स, कैंसर, इबोला, स्वाइन फ्लू जैसी बीमारियों से जूझ रही है, बाबा लोग इन बीमारियों को नहीं देखते....आखिर मजबूरन उस बच्चे को नकली पैर लगवाना पड़ा,बाबा अगर चाहें तो सब कर सकते हैं लेकिन सब अगर बाबा ही कर देंगे तो इन्सान काहिल न हो जायगा? बाबा को इंसानियत की फ़िक्र सबसे ज्यादा है,
कुछ अरसा पहले मेरे एक परिचित को खतरनाक वाला पीलिया हो गया था, एक झाड फूँक करने वाले बाबा आते और रोज़ झाड फूंक कर के चले जाते,बाबा ने उसको एक गंडा भी बाँध रखा था,रोज़ गंडे की एक गिरह खुलती जाती और गंडा लम्बा होता जाता था,बाबा का कहना था की जैसे जैसे गंडे की लम्बाई बढती जाएगी वैसे वैसे मर्ज़ का जोर कम होता रहेगा,
लेकिन ब्लड टेस्ट की रिपोर्ट कुछ और कहती ,उसका मर्ज़ जोर पकड़ता जा रहा था, मजबूर होके बनारस के एक डॉक्टर के पास जाना पड़ा,
डॉक्टर रिपोर्ट देखते ही आग बबूला हो गया,मज़हब का दुश्मन नास्तिक कहीं का, ये डॉक्टर लोग चाहते ही नहीं की मुल्क में एक रूहानी माहौल बने,बाबा को भला बुरा कहने लगा, मुझे बड़ा गुस्सा आया, आस्था पर चोट लगी, आस्था बड़ी संवेदनशील होती है, जरा में चोटिल हो जाती है , छुई मुई की पत्तियों की तरह,
मर्ज़ का जोर ना होता और दोस्त की जान का सवाल ना होता तो बाबा को बुरा कहने वाले इस मलऊन डॉक्टर की कायदे से ठुकाई करता ताकि वो इज्ज़त करना सीख सके,इज्ज़त करना सिखाने के लिए ठुकाई सबस सशक्त साधन है,
हमारी आस्था कितनी ही अतार्किक क्यों न हो आपको उसकी इज्ज़त ज़रूर करनी होगी, ना की तो आगे आपकी ज़िम्मेदारी,
मार पीट, बहिष्कार उत्पीडन जैसे खौफ अच्छों अच्छों को इज्ज़त करना सिखा देते हैं,
गांव में कई लौंडे हैं जो बाहर पढने के लिए इनिवर्सिटी जाते हैं और वापस आते हैं मन भर का घमंड साथ में लेकर , अपना एक गोल बना लेंगे ,सब इनिवर्सिटी वाले, साथ उठेंगे साथ बैठेंगे,पता नहीं क्या क्या गपियाते रहते हैं,खैर,आप जितना ही छुपा लें लेकिन अन्दर की बातें निकल कर सामने आ ही जाती हैं , ये सब के सब आपस में बैठ कर मज़हब की बुराइयाँ करते हैं,बाबाओं,मौलवी साहबों,पंडितों को बुरा भला कहते हैं, कुफ्रिया कालीमात मुंह से निकालते हैं,नौज्बिल्लाह, अक्सर तो खुदा के वजूद पर ही बहस मुबाहिसा करते सुने गए हैं,बस पुख्ता सबूत का इंतज़ार है, गांव में सबकी बोलती बंद हो जाती है,हुक्का पानी उठने से सब डरते हैं,
जानते हैं एक बार जो गाँव बदर हुआ दोबारा उसको बिरादरी में कोई पूछेगा भी नहीं,राही मासूम रज़ा को आधा गाँव लिखने पर गंगौली से जो निकाला गया था तो दोबारा मियां की हिम्मत ना हुई जो अन्दर घुस सकें,
गली का कुत्ता भी बिरादरी बदर से अच्छा माना जाता है, कुत्ते को लोग पुचकार देते हैं रोटी डाल देते हैं लेकिन बिरादरी बदर को कोई झाकता तक नहीं,
खैर मेरे परिचित का पीलिया कुछ दिन की दवा से ठीक हो गया,
इसी दरम्यान एक सय्यद साहब भी दूर के किसी इलाके से वहां पधारे थे,चचा ने उनसे भी एक तावीज़ बनवा लिया था,सय्यद साहब के जलवे बड़े मशहूर हैं,
सबसे आम किस्सा यह है कि एक लड़की को मिर्गी आती थी, उसका इलाज भी उन्होंने ही किया था,लड़की पास के ही किसी जुलाहे की थी, मर्ज़ के चलते उसकी शादी नहीं हो पा रही थी, कुछ सरफिरे लोग यह भी कहते पाए गए थे की शादी ना हो पाने के चलते वो मरीज़ हो गयी है,
बहरहालजो भी हो,जुलाहा अपनी लड़की को बाबा के पास ले गया था,रोज़ मगरिब के पहले वो लड़की को बाबा के पास छोड़ आता और रात गहराते आ कर उसे वापस ले जाता, शुरू में लड़की ने वहां जाने में आना कानी की, बाप का शक अब यकीन में बदल गया था, ज़रूर ये वही बुरी शय है जो उसकी लड़की को पकडे है और अब बाबा के खौफ से डर गयी है,सोचती होगी कि बाबा उसे जला न दें,वो उसकी लड़की को बाबा के पास जाने से रोक रही है, लड़की छटपटाती,रोती लेकिन कोई न सुनता,धीरे धीरे वो "बुरी शय" कमज़ोर पड़ गयी और साथ ही लड़की का विरोध भी, एक महीने से भी कम वक़्त में लड़की की मिर्गी दूर हो गई, सय्यद साहब ने एक करम और किया,
"पैंतीस की हो रही है तुम्हारी बेटी, कौन शादी करेगा इससे, मैं निकाह पढवाए लेता हूँ"
जुलाहे की आंख में ख़ुशी के आंसू आ गए, इतना ऊंचा रिश्ता उसे कहाँ मिलता,सय्यद साहब की पहली बीवी हयात थीं,दोनों बीवियां रहेंगी,पहली बेगम तो ऊंची ज़ात की बीबी हैं, साथ रहना मुमकिन न होगा, उसकी बेटी को अलग खिलवत का इंतज़ाम हो जायेगा,कम से कम उसकी बाकी ज़िन्दगी तो ख़ुशी में बीतेगी,उसने बेटी के भविष्य की सारी संभावनाएं चट पट तय कर डाली,
बाबा का इतना बड़ा करम हुआ था उसपर,
एक तो लड़की की "बीमारी" ठीक हो गयी दूसरा बेटी का "बोझ" भी उतर गया,एक हिंदुस्तानी बाप को भला और क्या चाहिए?
चलिए ये कहानी तो ख़त्म हुई....आगे फिर कभी

~इमरान~

गुरुवार, 11 सितंबर 2014

दास्तान ए शजर

बारहां फैले ज़मीं पर हजारों दरख़्त
और आंगन में खिली मेरी रात की रानी,
नन्हे गुलों में महकती बला की खुशबू
अन्दर बढ़ते क़दमो को रोक लेती है,
चांदनी से चमक रही नन्ही पत्तियां
खामोश संगीत में गाती हुई कहती हैं
ज़रा महसूस तो करो इस कुदरत को
अँधेरी रातों में भी मसरूफ इस तमाशे को
मुख़्तसर ज़िन्दगी का हसीन नज़ारा
नजरो में आने से रह न जाए ,
इन दरख्तों के उभरे हुए खामोश तनों में
कोई जज्बात भी बसते हैं क्या ,
किसी ज़िन्दगी की कोई झलक
खामोश मुजस्समों में भी बसती है क्या
जिस कुदरत के तुम करिश्मे हो ,
उसी की निशानी मैं भी हूँ ,
खामोश हूँ तो क्या हुआ ...
मेरी ख़ामोशी भी बोला करती है
कुदरत के कुछ अनछुए पहलुओं से
तुम्हे आशना करवाता चलूँ ,
जिन्हें तुम हमसे जुदा कर ले गए
वो टुकड़े भी कुछ बोलते हैं क्या,
जिन कागजों पर तुम कलम घिसा करते हो,
वो दरअसल मेरा सूखा गोश्त है,
हमारी लाशों के सूखे टुकड़े
तुम्हारे घरों को बनाया करते हैं
कभी खिड़की तो कभी दरवाज़ा बन कर
तुम्हारी हिफाज़त में हर वक़्त,
कभी तुम्हारी शान ओ शौकत
तो कभी बेजां सहूलतों के नाम,
हम ब-ज़रिये अपनी लाशों के
तुम्हारा सब इंतज़ाम करते हैं 
इस तोहफे के लिए हमारा कभी
एक शुक्रिया तो कहते जाओ
ए औलाद ए आदम ,
ज़रा रुको तो सही
कहीं तुमसे कुछ खो ना जाए

(इमरान)

रविवार, 7 सितंबर 2014

और मुस्कुरा दी माँ....

निराला उत्तराखंड में प्रकाशित (चित्र संलग्न)


शहर के एक किनारे पर बनी झुग्गीयों वाली बस्ती में वो अधेड़ औरत अपनी बेटी के साथ रहा करती थी, गरीबी के कारण लड़की की पढाई छुट चुकी थी और वो अपनी माँ से सीखी हुई सिलाई कढाई के हुनर से कुछ पैसे कमा लिया करती थी , माँ भी सिलाई का काम करती थी , बस्ती की ही औरतें अपने और अपने बच्चों के कपडे उससे सिलवाया करती थीं ... इसी पर जैसे तैसे माँ बेटी का गुज़र हो जाया करता था, अक्सर सिलाई का काम ना आने या कम आने पर उसकी माँ को आस पास के मकानों पर साफ़ सफाई या बर्तन झाड़ू का काम भी करना पड़ता था... ज़िन्दगी इसी ढर्रे पर बीत रही थी कि अचानक एक दिन डाकिया राजेश की वो चिट्ठी लेकर आया, राजेश,उसका सगा भतीजा था,जो पढ़ाई ख़त्म करने के बाद नौकरी की तलाश में दिल्ली चला गया था, डाकिया को विदा करके चिट्ठी उसने कुसुम को दे दी, पढ़ना तो बिटिया,क्या लिखा है राजेश ने,
कुसुम ने भी उत्सुकतापूर्ण अंदाज़ से चिट्ठी हाथ में ले ली और उसे खोलने लगी,
आज अचानक राजेश भैय्या को हम लोगों की याद कैसे आ गयी माँ?
अरे तू पहले पढ़ तो,उसने लिखा क्या है....शीला ने कहा...

बुआ ,
सादर चरणस्पर्श,
आपके पुराने वाले पते पर कई ख़त लिखे लेकिन कोई जवाब ना आया, बाद में पता चला की आपने वो मकान छोड़ दिया है, बड़ी मुश्किल से आपका नया पता मालूम किया,3 साल हुए, दिल्ली में मेरी नौकरी एक बैंक में लग गयी है,मेरी शादी भी हो गयी है, हालात कुछ ऐसे बने की आप लोगों को शादी में ना बुला सका,उस पर विस्तार से फिर कभी, फिलहाल तो आप फ़ौरन यहाँ दिल्ली चली आइये,मैंने अपना मकान भी खरीद लिया है,जिसमे हम पति पत्नी अकेले ही रहते हैं,माँ बाबा के जाने के बाद हमारा इस संसार में आपके सिवा है ही कौन,कुसुम कैसी है?अब तो बड़ी हो गयी होगी,मैं यहीं स्कूल में उसका एडमिशन करा देता हूँ,आप जल्द आइये,पीछे मैं अपना पता दे रहा हूँ,

प्रतीक्षा में,
राजेश,आपकी बहु और आपका पोता

"माँ, तुम्हे क्या लगता है,अचानक इस तरह राजेश भैया हम लोगों पर क्यों मेहरबान हो गए?

तू बस इसी तरह शक किया कर, अरे बेचारा अकेला है,वहां उसका है ही कौन, मुझे अपने पोते को भी तो देखना है.....हम परसों ही दिल्ली चलेंगे...शीला ने फैसला सुनाया...

राजेश ने टिकट के लिए पैसे भी भेजे थे, दोनों माँ बेटी दिल्ली वाली ट्रेन में बैठ गए, स्टेशन पर राजेश उन्हें लेने आया था...
कितना बदल गया था वो, कभी उसकी गोद में खिलखिलाने वाला नन्हा राजेश... शीला ने अपने भतीजे को ख़ुशी से गले लगा लिया, दोनों घर पहुंचे,
राजेश की पत्नी सुजाता ने उनका स्वागत किया, बुआ के पाँव छुए और कुसुम को गले से लगा लिया,
राकेश ने अपनी बुआ और कुसुम को मकान में ही एक कमरा दे दिया था, जहाँ दोनों माँ बेटी सोया करते थे, शीला किचन का सारा काम देखने लगी थी, कुसुम राजेश और सुजाता के तीन माह के बच्चे को सम्हाल लेती,
राजेश ने कुसुम का एडमिशन एक नजदीक के सरकारी स्कूल में करवा दिया था,
दोनों माँ बेटी बहुत खुश थे, सुजाता के पुराने कपडे कुसुम को बिलकुल फिट आते थे, थोडा सा सिलाई के बाद शीला भी उन्हें पहन सकती थी, तीज त्यौहार पर उनके किए नए कपडे भी बनवा दिए जाते थे,

अक्सर राजेश के दफ्तर के लोग या सुजाता की सहेलियां उनके घर आया करते थे, लेकिन राजेश और सुजाता कभी उन्हें अपने मेहमानों से ना मिलवाते,एक दो बार कुसुम के जिज्ञासा प्रकट करने पर शीला ने उसे झिड़क दिया.....तुझे इससे क्या...वो सब उसके ऑफिस और सोसाइटी के लोग हैं..हमे उनसे क्या मिलना...
एक दिन कुसुम टीवी देखने बैठी, सुजाता ने उसके हाथ से रिमोट छीन लिया "सुनाई नहीं देता तुझे,मुन्ना कब से रो रहा है"
कुसुम सहम गयी,इस व्यव्हार की अपेक्षा उसने भाभी से कभी ना की थी... उसकी आंख में आंसू अ गए,
माँ से शिकायत करने पर उल्टा डांट सुनने को मिली,
कुसुम कि समझ में कुछ ना आता, उसे नहीं मालूम था की टीवि देख कर उसने कौन सी गलती की थी, मुन्ना तो सारा दिन रोता रहता है, फिर उसका क्या कसूर था, उसने थोड़े रुलाया था मुन्ना को.... माँ हमेशा मुझी को डांट देती है, माँ उससे हमेशा कहती, तू अभी बच्ची है...नहीं समझेगी...
क्यों नहीं समझेगी ? वो अब क्लास 8rth में पहुच गयी है,उसे मैथ समझ में आती है, इंग्लिश भी समझ आती है, बस नहीं समझ आती तो माँ की बात...वो क्यों हमेशा राजेश भैया और सुजाता भाभी के दुर्व्यवहार को हंस के टाल जाती है, वो तो राजेश भैया से बड़ी है, राजेश भैया तो क्या वो तो अनिल मामा,(राजेश के पिता) से भी बड़ी है, क्या राजेश भिया अपने स्वर्गीय पिता से भी ऐसे ही बात करते ,सुजाता भाभी क्या उनसे भी ऐसा सुलूक करतीं और राजेश भैया खामोश रहते?उसे कोई जवाब ना मिलता....
दिन यु ही बीत रहे थे,एक दिन अक्सर की तरह राजेश ने घर पर पार्टी दी थी, राजेश के कुछ  दोस्त संग अपने परिवार के पार्टी में शरीक होने आए थे , सभी दोस्त हॉल में ही थे,पार्टी अपने चरम पर थी दोस्तों में हंसी मजाक हो रहा था, शीला अपने कमरे से उठी और किचन की तरफ जाने लगी,कुसुम उसके पीछे ही थी,...शायद दोनों अपना खाना लेने आये थे, किचन से लौटते रास्ते में ही उनके कानो में एक आवाज़ पड़ी ,
"क्यों राजेश , ये लेडीज़ कौन है?
राजेश के किसी दोस्त ने उससे पूछा था,
"कौन वोह?मेड्स है यार"
"ओके ओके, चल एक पेग और बना जल्दी....
अचनाक शीला के हाथ से खाने की प्लेट नीचे गिरी,
सुजाता ने आवाज़ लगाई ,
"अरे क्या हुआ.?"
कुसुम जो सारा माजरा देख रही थी फ़ौरन झुकी और ज़मीन पर गिरे बर्तन समेटते हुए वहीँ से जवाब में बोली....
"कुछ नहीं मेमसाब,प्लेट गिर गयी थी"
"मेमसाब"
राजेश के कानों में कुसुम का यह शब्द तीर की तरह चुभा, और उसका सारा नशा हिरन हो गया ....
कुसुम को एक ही पल में माँ की वो बात समझ आ गयी थी जिसके ना समझने पर वो हमेशा अपनी समझ पर अफ़सोस करती रहती थी....शीला उसकी माँ,अपनी बेटी की समझदारी पर मुस्कुरा दी....

~इमरान~ 

सवाल का जवाब

जेब में पड़ा आखिरी दस का नोट निकाल उसे बड़े गौर से निहार रहा था, ये सोचते हुए की अभी कुछ देर में जब यह भी खत्म हो जायेगा,फिर क्या होगा, पान वाले की दूकान से बीडी ख़रीदी और चिल्लर जेब में रखते हुए वापस अपना रिक्शा लेकर सिटी स्टेशन की जानिब बढ़ चला...
सुबह के सात बजने आ रहे थे,इस वक़्त स्टेशन पर पक्का सवारी मिल जाएगी...शाम तक दो चार सौ की जुगाड़ कर लेगा तो खाना वगैरह कर के कुछ पैसे बचा लेगा....टीन के छोटे डिब्बे के ढक्कन को काट कर बनाई गोलक में डालने के लिए,
वो पैसे बचा तो रहा था लेकिन बेमकसद सा....अक्सर सोचता , की इन बचाए हुए पैसों का वो करेगा क्या...घर में उसके और पत्नी के अलावा था ही कौन....यहाँ कोई नातेदार रिश्तेदार था नहीं....

जिस इश्वर की वो रोज़ उपासना करता था,और जिस कथित परमपिता सृष्टि के पालक पर उसका अटूट विश्वास था,उसने कोई सन्तान भी न दी थी....
ना ही इतना पैसा दिया था जिससे कि वोह अपना या अपनी पत्नी का इलाज करवा सकता...
उसे यह भी नहीं मालूम था की कमी किस में थी,उसमे या उसकी पत्नी में,
यार दोस्त अक्सर सलाह देते.....दूसरी कर लो, लेकिन वो हंस के अनसुनी कर जाता....उसको अपनी पत्नी से अगाध प्रेम था,
गरीबी में जीवन यापन करने वालों के पास सम्पदा के नाम पर प्रेम और विश्वास की अकूत दौलत होती है...उसे भी नाज़ था अपनी इस दौलत पर....जिसे उसने हमेशा से अपने रिश्ते में संजो कर रखा था...
अक्सर वो अपनी पत्नी को घर के कामों में मसरूफ बड़े गौर से देखता....पसीने में भीगती हुई,तीन तरफ से मिटटी और एक तरफ से बांस लगा कर भूस और छप्पर से बनाई हुई उसकी झोपडी जिसे वो बड़े इत्मिनान और प्यार से "घर" कहते थे...
उस घर की मालकिन यानि उसकी पत्नी बड़े जतन से उसके घर को सहेजा करती थी...वो कैसे इस औरत को छोड़ कर दूसरी कर ले...उससे ये पाप ना होगा....

रोज़ाना गुल्लक में पैसे डालते समय वो गुल्लक का वज़न भी देखता जाता...और फिर ख़ुशी और इत्मिनान के साथ चिंता और गहन विचार के भाव एक के बाद एक उसके चेहरे पर आते और फिर अगले ही क्षण चले भी जाते थे,
हाँ अक्सर ये सवाल वो खुद से पूछता, उसने ये गुल्लक क्यों रखी थी...अंतर्मन से जो जवाब आता वो अस्पष्ट होता.... एक दिलासा जैसे
" वक़्त ज़रूरत पर काम आएगा"...
और वो फिर निश्चिंत होकर गली में पलंग डाल उस पर पड़ जाता,दोनों पति पत्नी की ज़िन्दगी इसी तरह गुज़र रही थी...एक दिन स्टेशन की सवारी उतार कर वापस घर आते वक़्त मोड़ पर ही एक आवाज़ सुनाई पड़ी..... "सुनो"
उसने मुड़ कर नही देखा,वो बहुत थक चूका था...अब और सवारी नहीं बैठाना चाहता था...सवारी को मना करने पर लोग अक्सर भड़क जाते हैं और गुस्सा करते हैं,वो कई बार सवारियों को सीधे मना करने पर "सभ्य संभ्रांत" लोगों के हाथ मार खा चूका था....मुंह पर पड़ते तमाचे के साथ ज़ोरदार गाली भी
"साले चलेगा कैसे नहीं ! ये रिक्शा क्या घुमने के लिए लेकर निकला है"
उसकी आंख भर आती ...कुछ नहीं कर पाता वो इन "बड़े लोगों" का...लिहाज़ा मार खाने या गाली सुनने के डर से सवारी न बिठाने का मन होने पर वो रिक्शा लेकर चुपचाप आगे बढ़ता चला जाता.....लेकिन उस दिन ऐसा नहीं हुआ....चार पेडल और मारने के बाद उसे फिर वही आवाज़ सुनाई दी
"अरे भैय्या ज़रा रुको ना"
आवाज़ किसी महिला की थी....उसने ब्रेक लगाया.....जनानी सवारियां बहस नहीं करतीं..मार पीट भी नहीं...इस वक़्त रात के ग्यारह बजे के करीब यहाँ कौन औरत हो सकती है...उसके मन में मदद का भाव जाग गया था....
कहीं सुन रखा था जो दूसरों की मदद करते हैं भगवन उनकी मदद करेगा...उसको भगवान् से कोई ख़ास उम्मीद नहीं थी...लेकिन दूसरों की मदद करने पर उसे एक अजीब सा सुकून ज़रूर अनुभव होता था, इसी सुकून की लालच में वो उस दिन रुक गया था....उसने देखा.. एक महिला गोद में एक छोटा बच्चा लिए थी...
"सदर अस्पताल चलो जल्दी"
वो समझ गया की मामला क्या है...बिना देर किए उसने रिक्शा घुमाया और सरकारी अस्पताल की जानिब मोड़ दिया....रस्ते में उसने सोचा की महिला से पूछे...थोड़ी हिम्मत जुटा कर पूछ ही लिया...
बहन क्या बच्चा ज्यादा बीमार है.?
चिंतित स्वर में जवाब मिला
"हाँ , इसको निमोनिया हो गया है"
वो तेज़ी से पेडल मारता जा रहा था और मन में सोचता जा रहा था...सरकारी अस्पताल में क्या इलाज होगा.....देखा था उसने, किस तरह इसी निमोनिया में उसके पडोसी श्याम की बिटिया ने दम तोडा था...उसी सरकारी अस्पताल में भर्ती करवाया था उसको भी....इलाज नाम मात्र को....लापरवाही हद से ज्यादा...नतीजा बच्ची की मौत....उसने समझाना चाहा-, "बहनजी वहां इलाज सही नहीं होगा,बड़े लापरवाह लोग हैं आप बच्चे को किसी दूसरी जगह दिखा लो"
"कहाँ?"
"जितिन डाकसाब हैं उधर रस्ते में,बच्चों के डॉक्टर हैं,
उनके अस्पताल में अच्छा इलाज होता है"

महिला जो अकेली थी और बेहद परेशां भी..एक मिनट तक सोचने के बाद उसने हामी भर दी..."ठीक है भैया वहीँ चलो..."
रिक्शा अब एक निजी अस्पताल की जानिब चल पड़ा....अस्पताल पहुचते ही डॉक्टर ने फ़ौरन बच्चे को देखा और एडमिट कराने को कह दिया....
अस्पताल की रौशनी में महिला को देख बसंत ने समझ लिया की यह भी उसी की तरह कोई नसीब की मारी गरीब इन्सान है.... मैले पुराने कपडे...बिखरे बाल पीला रंग फटी फटी आँखें.....
काउंटर से परचा बनवाने गयी तो वहां बैठे आदमी ने फ़ौरन तीन हज़ार जमा करवाने को कहा...महिला शायद इसके लिए तैयार थी लेकिन पूरी तरह नहीं...उसने अपने साथ लाये पुराने मैले से कपडे के पर्स से दो हज़ार गिनती के निकाल कर उसके हवाले किए और कहा "भैया अभी इतने पैसे ही ला सकी हूँ,बाकी के कल जमा करा दूंगी"
काउंटर बॉय ने पैसे गल्ले के हवाले करते हुए कहा "देखिये कल तक आप पूरे पैसे जमा करा दीजिएगा,बच्चे की हालत नाज़ुक है और उसको गहरे इलाज की सख्त ज़रूरत है,वरना कुछ भी हो सकता है"

"कुछ भी" ........?

एक पल को महिला कांप उठी....

बसंत वहीँ खडा देख रहा था...जो शायद अब तक अपने मेहनताने के लिए रुक हुआ था,पर यह सब देख कर वो अपनी मजदूरी भूल गया.....
महिला ने उसकी ओर क्षमायाचक दृष्टि से देखा और नज़रें झुका लीं...
बसंत को खुद शर्मिंदगी का एहसास हुआ और वापस पलट गया....
अगले दिन उसको वही महिला फिर उस अस्पताल की ओर जाती दिखाई पड़ी तो उसने रिक्शा रोक दिया-, "बैठिये बहन आपको अस्पताल छोड़ दूँ"

" नहीं भैया उस दिन बच्चा साथ में था जल्दी भी थी इसलिए आपको रोका वरना मैं अक्सर पैदल ही चला करती हूँ"
बसंत ने फिर कहा
" बहन, उतनी दूर अस्पताल है आपका बच्चा अकेला है आपको वहां जल्दी जाना चाहिए,आप बैठो किराये की चिंता मत करो,"
बहन शब्द सुन कर महिला के चेहरे पर कुछ सहजता के भाव उतरे
बसंत रोज़ ही सवारी की तलाश में खाली रिक्शा लेकर इधर उधर कितना घूमता था...उसने सोचा यह भी उसी वक़्त में जोड़ लेगा...
थोड़ी ना नुकुर के बाद वो भी रिक्शे पर बैठी और रिक्शा अस्पताल की जानिब चल पड़ा....
रस्ते में थोड़ी बहुत बातचीत में महिला ने बताया की वो इधर ही सड़क के उस ओर बस्ती में रहती है,उसका पति मध्य प्रदेश में कहीं मजदूरी करता है किसी ईंट भट्टे पर...वहां उसका तीन साल का करार हुआ है,अभी वो उसे ज्यादा पैसे भी नहीं भेज पाता....अस्पताल की बकाया फ़ीस जमा करने के लिए उसने अपनी नाक की बारीक सी नथनी बेची थी, (जो शायद उसकी एकमात्र अचल सम्पत्ति रही होगी) वही पैसे लेकर वो बदनसीब अस्पताल जा रही थी...जब तक यह पैसे चलेंगे उसके बच्चे का इलाज होता रहेगा...
बसंत को सारा माजरा समझ आ गया....यह भी मेरी तरह ही है, जब तक इसके पैसे चलेंगे इसके बच्चे की सांस भी तभी तक....
वो सोचते सोचते रुक गया ....
महिला को अस्पताल उतार कर वापस लौट रहा था..उसका मन अजीब हो रहा था....भारी भारी क़दमों से वो रिक्शा बस घसीट रहा था..रस्ते में एक दो सवारियों की आवाज़ को अनसुना करता आगे बढ़ता चला जा रहा था...रस्ते में पड़ने वाली मोटरों और बिल्डिंगों को अजीब हेय दृष्टि से देखता...और एक महान दार्शनिक की भांति कुछ सोचता हुआ सा.....क्या इन बड़े लोगों के दिल नहीं होता....? डॉक्टर साहब कितने अमीर आदमी हैं...क्या एक बच्चे की जान से ज्यादा उसको पैसा अज़ीज़ है...?
इस सब सवालों से घिरा एक पेड़ के नीचे अपना रिक्शा रोक सुस्ताता हुआ बसंत कुछसोच ही रहा था की एक आवाज़ ने उसका ध्यान भंग किया "यूनिवर्सिटी रोड चलोगे?"
अनमने दिल से उसने हाँ कहा,
सवारी को मंजिल तक पहुचाना ही तो उसका काम है...वो अपने काम को कितनी ईमानदारी से पूरा करता है...कभी कम पैसे देने वाली सवारियों से झिकझिक नहीं करता....चुपचाप मुस्कुराता हुआ आगे बढ़ जाता है...
लेकिन सब लोग उसके जैसे नहीं होते...डॉक्टर के बारे में सोचता हुआ वो आगे बढ़ गया,
शाम को घर पहुचने पर थका मांदा बसंत मुंह हाथ दो कर सीधे बिस्तर पर पड़ गया....घरवाली ने खाने के लिए कहा..पर उसने मना कर दिया...आज उसका खाने का मन नहीं था...
आंखे बंद किए खटिया पर पड़ गया..
थोड़ी देर वैसा ही लेते रहने के बाद घरवाली ने फिर आवाज़ दी.....
"खाना तो खा लो...., सुबह से भूखे होगे"
बसंत मुस्कुरा दिया...वो अब भी मुस्कुरा पा रहा था.... उसकी घरवाली उसका कितना ध्यान रखती है...मन ही मन दूसरी घरवाली करने की सलाह देने वाले दोस्तों की मूर्खता पर उन्हें मोटी सी गाली देते हुए बसंत उठा और वहीँ पलंग पर बैठ गया....लगाओ खाना..
"पहले मुंह हाथ तो धो लो..."
"अरे अभी तो धुला था अब कितना धुलूं"....बसंत खिसियाई आवाज़ में बोला....
घरवाली मुस्कुराते हुए इन्तेजाम में जुट गयी,

बसंत उठा और अपनी धोती सही करते हुए जेब से कुछ पैसे निकाल कर उसी टीन के छोटे डिबे के ढकन में छेद कर के बनाई अपनी गोलक की ओर बढ़ा...
जेब से कुछ  पैसे निकाले...गोलक में डाले और आदतन हमेशा की तरह गोलक का वज़न कितना बढ़ा यह चेक करने लगा....वज़न ज्यादा देख उसको ख़ुशी सी महसूस हुई...अगले पल उसके मन में वही अक्सर वाला सवाल फिर उठा... बसंत के चेहरे पर एक रहस्मयमयि मुस्कान तैर गयी....उसने झट कमीज़ उठाई...कमर में गमछा कसा और गुल्लक उठा कर उसका ढक्कन खोल दिया....डिब्बा पलट कर सारे पैसे ज़मीन पर गिरा दिए...फिर किसी छोटे बच्चे की तरह सारे नोट और सिक्के एक एक कर के जमा करने लगा...गिनने पर कुल चार हज़ार पांच सौ रूपये के नोट और कुछ अच्छे खासे सिक्के निकले देख उसको एक सुकून की अनुभूति सी हुई....फ़ौरन एक प्लास्टिक की छोटी पन्नी जिसको वो बारिश या पसीने से नोटों को भीगने से बचाने के लिए पर्स की तरह इस्तेमाल करता था, में वो पैसे (जो उसकी बरसों की जमा पूँजी रही होगी डाले) और घर से निकलने को हुआ....उसकी पत्नी ने आवाज़ दी...अरे रोटी तो खाते जाओ,कहाँ जा रहे हो इस वक़त....

"बस अभी आया मन्नो,तू रुक"

इतना कह कर दरवाज़े से बाहर निकल गया...रिक्शे उठाया और तेज़ी से पैडल मारते चल पड़ा उसी अस्पताल के रास्ते पर....इस वक़्त वो बहुत खुश और आत्मविश्वास से लबरेज़ था,इस हड़बड़ी और जल्दबाजी में भी एक अजीब सा इत्मीनान और ख़ुशी का एहसास उसके दिमाग की नसों में प्रवाहित हो गया था,जिसकी अनुभूति शायद शब्दों में बयान नहीं की जा सकती......आज बसंत को, उसके अंतर्मन से उठने वाले सवाल का स्पष्ट जवाब मिल गया था....आज वो बेहद खुश था....

इमरान (जौनपुर, उप्र)