रविवार, 7 सितंबर 2014

सवाल का जवाब

जेब में पड़ा आखिरी दस का नोट निकाल उसे बड़े गौर से निहार रहा था, ये सोचते हुए की अभी कुछ देर में जब यह भी खत्म हो जायेगा,फिर क्या होगा, पान वाले की दूकान से बीडी ख़रीदी और चिल्लर जेब में रखते हुए वापस अपना रिक्शा लेकर सिटी स्टेशन की जानिब बढ़ चला...
सुबह के सात बजने आ रहे थे,इस वक़्त स्टेशन पर पक्का सवारी मिल जाएगी...शाम तक दो चार सौ की जुगाड़ कर लेगा तो खाना वगैरह कर के कुछ पैसे बचा लेगा....टीन के छोटे डिब्बे के ढक्कन को काट कर बनाई गोलक में डालने के लिए,
वो पैसे बचा तो रहा था लेकिन बेमकसद सा....अक्सर सोचता , की इन बचाए हुए पैसों का वो करेगा क्या...घर में उसके और पत्नी के अलावा था ही कौन....यहाँ कोई नातेदार रिश्तेदार था नहीं....

जिस इश्वर की वो रोज़ उपासना करता था,और जिस कथित परमपिता सृष्टि के पालक पर उसका अटूट विश्वास था,उसने कोई सन्तान भी न दी थी....
ना ही इतना पैसा दिया था जिससे कि वोह अपना या अपनी पत्नी का इलाज करवा सकता...
उसे यह भी नहीं मालूम था की कमी किस में थी,उसमे या उसकी पत्नी में,
यार दोस्त अक्सर सलाह देते.....दूसरी कर लो, लेकिन वो हंस के अनसुनी कर जाता....उसको अपनी पत्नी से अगाध प्रेम था,
गरीबी में जीवन यापन करने वालों के पास सम्पदा के नाम पर प्रेम और विश्वास की अकूत दौलत होती है...उसे भी नाज़ था अपनी इस दौलत पर....जिसे उसने हमेशा से अपने रिश्ते में संजो कर रखा था...
अक्सर वो अपनी पत्नी को घर के कामों में मसरूफ बड़े गौर से देखता....पसीने में भीगती हुई,तीन तरफ से मिटटी और एक तरफ से बांस लगा कर भूस और छप्पर से बनाई हुई उसकी झोपडी जिसे वो बड़े इत्मिनान और प्यार से "घर" कहते थे...
उस घर की मालकिन यानि उसकी पत्नी बड़े जतन से उसके घर को सहेजा करती थी...वो कैसे इस औरत को छोड़ कर दूसरी कर ले...उससे ये पाप ना होगा....

रोज़ाना गुल्लक में पैसे डालते समय वो गुल्लक का वज़न भी देखता जाता...और फिर ख़ुशी और इत्मिनान के साथ चिंता और गहन विचार के भाव एक के बाद एक उसके चेहरे पर आते और फिर अगले ही क्षण चले भी जाते थे,
हाँ अक्सर ये सवाल वो खुद से पूछता, उसने ये गुल्लक क्यों रखी थी...अंतर्मन से जो जवाब आता वो अस्पष्ट होता.... एक दिलासा जैसे
" वक़्त ज़रूरत पर काम आएगा"...
और वो फिर निश्चिंत होकर गली में पलंग डाल उस पर पड़ जाता,दोनों पति पत्नी की ज़िन्दगी इसी तरह गुज़र रही थी...एक दिन स्टेशन की सवारी उतार कर वापस घर आते वक़्त मोड़ पर ही एक आवाज़ सुनाई पड़ी..... "सुनो"
उसने मुड़ कर नही देखा,वो बहुत थक चूका था...अब और सवारी नहीं बैठाना चाहता था...सवारी को मना करने पर लोग अक्सर भड़क जाते हैं और गुस्सा करते हैं,वो कई बार सवारियों को सीधे मना करने पर "सभ्य संभ्रांत" लोगों के हाथ मार खा चूका था....मुंह पर पड़ते तमाचे के साथ ज़ोरदार गाली भी
"साले चलेगा कैसे नहीं ! ये रिक्शा क्या घुमने के लिए लेकर निकला है"
उसकी आंख भर आती ...कुछ नहीं कर पाता वो इन "बड़े लोगों" का...लिहाज़ा मार खाने या गाली सुनने के डर से सवारी न बिठाने का मन होने पर वो रिक्शा लेकर चुपचाप आगे बढ़ता चला जाता.....लेकिन उस दिन ऐसा नहीं हुआ....चार पेडल और मारने के बाद उसे फिर वही आवाज़ सुनाई दी
"अरे भैय्या ज़रा रुको ना"
आवाज़ किसी महिला की थी....उसने ब्रेक लगाया.....जनानी सवारियां बहस नहीं करतीं..मार पीट भी नहीं...इस वक़्त रात के ग्यारह बजे के करीब यहाँ कौन औरत हो सकती है...उसके मन में मदद का भाव जाग गया था....
कहीं सुन रखा था जो दूसरों की मदद करते हैं भगवन उनकी मदद करेगा...उसको भगवान् से कोई ख़ास उम्मीद नहीं थी...लेकिन दूसरों की मदद करने पर उसे एक अजीब सा सुकून ज़रूर अनुभव होता था, इसी सुकून की लालच में वो उस दिन रुक गया था....उसने देखा.. एक महिला गोद में एक छोटा बच्चा लिए थी...
"सदर अस्पताल चलो जल्दी"
वो समझ गया की मामला क्या है...बिना देर किए उसने रिक्शा घुमाया और सरकारी अस्पताल की जानिब मोड़ दिया....रस्ते में उसने सोचा की महिला से पूछे...थोड़ी हिम्मत जुटा कर पूछ ही लिया...
बहन क्या बच्चा ज्यादा बीमार है.?
चिंतित स्वर में जवाब मिला
"हाँ , इसको निमोनिया हो गया है"
वो तेज़ी से पेडल मारता जा रहा था और मन में सोचता जा रहा था...सरकारी अस्पताल में क्या इलाज होगा.....देखा था उसने, किस तरह इसी निमोनिया में उसके पडोसी श्याम की बिटिया ने दम तोडा था...उसी सरकारी अस्पताल में भर्ती करवाया था उसको भी....इलाज नाम मात्र को....लापरवाही हद से ज्यादा...नतीजा बच्ची की मौत....उसने समझाना चाहा-, "बहनजी वहां इलाज सही नहीं होगा,बड़े लापरवाह लोग हैं आप बच्चे को किसी दूसरी जगह दिखा लो"
"कहाँ?"
"जितिन डाकसाब हैं उधर रस्ते में,बच्चों के डॉक्टर हैं,
उनके अस्पताल में अच्छा इलाज होता है"

महिला जो अकेली थी और बेहद परेशां भी..एक मिनट तक सोचने के बाद उसने हामी भर दी..."ठीक है भैया वहीँ चलो..."
रिक्शा अब एक निजी अस्पताल की जानिब चल पड़ा....अस्पताल पहुचते ही डॉक्टर ने फ़ौरन बच्चे को देखा और एडमिट कराने को कह दिया....
अस्पताल की रौशनी में महिला को देख बसंत ने समझ लिया की यह भी उसी की तरह कोई नसीब की मारी गरीब इन्सान है.... मैले पुराने कपडे...बिखरे बाल पीला रंग फटी फटी आँखें.....
काउंटर से परचा बनवाने गयी तो वहां बैठे आदमी ने फ़ौरन तीन हज़ार जमा करवाने को कहा...महिला शायद इसके लिए तैयार थी लेकिन पूरी तरह नहीं...उसने अपने साथ लाये पुराने मैले से कपडे के पर्स से दो हज़ार गिनती के निकाल कर उसके हवाले किए और कहा "भैया अभी इतने पैसे ही ला सकी हूँ,बाकी के कल जमा करा दूंगी"
काउंटर बॉय ने पैसे गल्ले के हवाले करते हुए कहा "देखिये कल तक आप पूरे पैसे जमा करा दीजिएगा,बच्चे की हालत नाज़ुक है और उसको गहरे इलाज की सख्त ज़रूरत है,वरना कुछ भी हो सकता है"

"कुछ भी" ........?

एक पल को महिला कांप उठी....

बसंत वहीँ खडा देख रहा था...जो शायद अब तक अपने मेहनताने के लिए रुक हुआ था,पर यह सब देख कर वो अपनी मजदूरी भूल गया.....
महिला ने उसकी ओर क्षमायाचक दृष्टि से देखा और नज़रें झुका लीं...
बसंत को खुद शर्मिंदगी का एहसास हुआ और वापस पलट गया....
अगले दिन उसको वही महिला फिर उस अस्पताल की ओर जाती दिखाई पड़ी तो उसने रिक्शा रोक दिया-, "बैठिये बहन आपको अस्पताल छोड़ दूँ"

" नहीं भैया उस दिन बच्चा साथ में था जल्दी भी थी इसलिए आपको रोका वरना मैं अक्सर पैदल ही चला करती हूँ"
बसंत ने फिर कहा
" बहन, उतनी दूर अस्पताल है आपका बच्चा अकेला है आपको वहां जल्दी जाना चाहिए,आप बैठो किराये की चिंता मत करो,"
बहन शब्द सुन कर महिला के चेहरे पर कुछ सहजता के भाव उतरे
बसंत रोज़ ही सवारी की तलाश में खाली रिक्शा लेकर इधर उधर कितना घूमता था...उसने सोचा यह भी उसी वक़्त में जोड़ लेगा...
थोड़ी ना नुकुर के बाद वो भी रिक्शे पर बैठी और रिक्शा अस्पताल की जानिब चल पड़ा....
रस्ते में थोड़ी बहुत बातचीत में महिला ने बताया की वो इधर ही सड़क के उस ओर बस्ती में रहती है,उसका पति मध्य प्रदेश में कहीं मजदूरी करता है किसी ईंट भट्टे पर...वहां उसका तीन साल का करार हुआ है,अभी वो उसे ज्यादा पैसे भी नहीं भेज पाता....अस्पताल की बकाया फ़ीस जमा करने के लिए उसने अपनी नाक की बारीक सी नथनी बेची थी, (जो शायद उसकी एकमात्र अचल सम्पत्ति रही होगी) वही पैसे लेकर वो बदनसीब अस्पताल जा रही थी...जब तक यह पैसे चलेंगे उसके बच्चे का इलाज होता रहेगा...
बसंत को सारा माजरा समझ आ गया....यह भी मेरी तरह ही है, जब तक इसके पैसे चलेंगे इसके बच्चे की सांस भी तभी तक....
वो सोचते सोचते रुक गया ....
महिला को अस्पताल उतार कर वापस लौट रहा था..उसका मन अजीब हो रहा था....भारी भारी क़दमों से वो रिक्शा बस घसीट रहा था..रस्ते में एक दो सवारियों की आवाज़ को अनसुना करता आगे बढ़ता चला जा रहा था...रस्ते में पड़ने वाली मोटरों और बिल्डिंगों को अजीब हेय दृष्टि से देखता...और एक महान दार्शनिक की भांति कुछ सोचता हुआ सा.....क्या इन बड़े लोगों के दिल नहीं होता....? डॉक्टर साहब कितने अमीर आदमी हैं...क्या एक बच्चे की जान से ज्यादा उसको पैसा अज़ीज़ है...?
इस सब सवालों से घिरा एक पेड़ के नीचे अपना रिक्शा रोक सुस्ताता हुआ बसंत कुछसोच ही रहा था की एक आवाज़ ने उसका ध्यान भंग किया "यूनिवर्सिटी रोड चलोगे?"
अनमने दिल से उसने हाँ कहा,
सवारी को मंजिल तक पहुचाना ही तो उसका काम है...वो अपने काम को कितनी ईमानदारी से पूरा करता है...कभी कम पैसे देने वाली सवारियों से झिकझिक नहीं करता....चुपचाप मुस्कुराता हुआ आगे बढ़ जाता है...
लेकिन सब लोग उसके जैसे नहीं होते...डॉक्टर के बारे में सोचता हुआ वो आगे बढ़ गया,
शाम को घर पहुचने पर थका मांदा बसंत मुंह हाथ दो कर सीधे बिस्तर पर पड़ गया....घरवाली ने खाने के लिए कहा..पर उसने मना कर दिया...आज उसका खाने का मन नहीं था...
आंखे बंद किए खटिया पर पड़ गया..
थोड़ी देर वैसा ही लेते रहने के बाद घरवाली ने फिर आवाज़ दी.....
"खाना तो खा लो...., सुबह से भूखे होगे"
बसंत मुस्कुरा दिया...वो अब भी मुस्कुरा पा रहा था.... उसकी घरवाली उसका कितना ध्यान रखती है...मन ही मन दूसरी घरवाली करने की सलाह देने वाले दोस्तों की मूर्खता पर उन्हें मोटी सी गाली देते हुए बसंत उठा और वहीँ पलंग पर बैठ गया....लगाओ खाना..
"पहले मुंह हाथ तो धो लो..."
"अरे अभी तो धुला था अब कितना धुलूं"....बसंत खिसियाई आवाज़ में बोला....
घरवाली मुस्कुराते हुए इन्तेजाम में जुट गयी,

बसंत उठा और अपनी धोती सही करते हुए जेब से कुछ पैसे निकाल कर उसी टीन के छोटे डिबे के ढकन में छेद कर के बनाई अपनी गोलक की ओर बढ़ा...
जेब से कुछ  पैसे निकाले...गोलक में डाले और आदतन हमेशा की तरह गोलक का वज़न कितना बढ़ा यह चेक करने लगा....वज़न ज्यादा देख उसको ख़ुशी सी महसूस हुई...अगले पल उसके मन में वही अक्सर वाला सवाल फिर उठा... बसंत के चेहरे पर एक रहस्मयमयि मुस्कान तैर गयी....उसने झट कमीज़ उठाई...कमर में गमछा कसा और गुल्लक उठा कर उसका ढक्कन खोल दिया....डिब्बा पलट कर सारे पैसे ज़मीन पर गिरा दिए...फिर किसी छोटे बच्चे की तरह सारे नोट और सिक्के एक एक कर के जमा करने लगा...गिनने पर कुल चार हज़ार पांच सौ रूपये के नोट और कुछ अच्छे खासे सिक्के निकले देख उसको एक सुकून की अनुभूति सी हुई....फ़ौरन एक प्लास्टिक की छोटी पन्नी जिसको वो बारिश या पसीने से नोटों को भीगने से बचाने के लिए पर्स की तरह इस्तेमाल करता था, में वो पैसे (जो उसकी बरसों की जमा पूँजी रही होगी डाले) और घर से निकलने को हुआ....उसकी पत्नी ने आवाज़ दी...अरे रोटी तो खाते जाओ,कहाँ जा रहे हो इस वक़त....

"बस अभी आया मन्नो,तू रुक"

इतना कह कर दरवाज़े से बाहर निकल गया...रिक्शे उठाया और तेज़ी से पैडल मारते चल पड़ा उसी अस्पताल के रास्ते पर....इस वक़्त वो बहुत खुश और आत्मविश्वास से लबरेज़ था,इस हड़बड़ी और जल्दबाजी में भी एक अजीब सा इत्मीनान और ख़ुशी का एहसास उसके दिमाग की नसों में प्रवाहित हो गया था,जिसकी अनुभूति शायद शब्दों में बयान नहीं की जा सकती......आज बसंत को, उसके अंतर्मन से उठने वाले सवाल का स्पष्ट जवाब मिल गया था....आज वो बेहद खुश था....

इमरान (जौनपुर, उप्र)

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