शनिवार, 23 मई 2015

मेराज ए इश्क़

किसी नज़्म की
या किसी बहार की सूरत
तुम कुछ इस तरह
तैर जाते हो
ज़ेहन में मेरे
कि ज़ेहन की
ज़रखेज़ ज़मीं में,
इश्क़ के तलातुम
किसी ज़लज़ले की सूरत
प्यार के इंक़लाब से
उमड़ आते हो
तूफ़ान ए इश्क़ फिर
ज़हन में मेरे
कर देते हो बरपा
हमारे अलहदा
वजूद ए मजाज़ी को
कर के यकजां
इत्र से इश्क़ के,
मोअत्तर कर जाते हो
ज़ेहन को हमारे
फिर हो ही जाती है
इश्क़ की ताज़ा
कोई मेराज अता .....

~इमरान~

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