बुधवार, 23 जुलाई 2014

अंतर्राष्ट्रीय विधि का औचित्य

किसी ज़माने में जब आज के सभ्य कहे जाने वाले देशों में विधि का शासन नहीं हुआ करता था तब संसार में जिसकी लाठी उसकी भैंसका आम निज़ाम प्रचलन में था, बाद में धीरे धीरे वक़्त बदला हालात बदले और अंत में विश्व के अधिकतर सभ्य समझदार देशों ने अपने अपने यहाँ एक लिखित संविधान को व्यवहार में अपनाया और इस प्रकार एक लिखित विधि का शासन अपने अपने देशों में स्थापित किया।

बदलते हालात और दो विश्वयुद्धों के दुष्परिणामों को झेलने के बाद अंततः वैश्विक समुदाय में भी एक न्यूनतम आपसी समझ और पारस्परिक सहयोग की भावना का जन्म हुआ और संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था वजूद में आई।

धीरे धीरे वैश्विक समुदाय ने राष्ट्रों के बीच आपसी सम्बन्ध तथा एक देश की गतिविधियों से अन्य देशों पर पड़ने वाले अच्छे बुरे प्रभावों में सामंजस्य स्थापित करने के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय विधि की आवश्यकता महसूस की। तत्पश्चात अंतर्राष्ट्रीय संधियों, कन्वेशनों तथा राष्ट्रों के आपसी समझ एवं वार्ता से उत्पन्न समझौतों को अंतर्राष्ट्रीय विधि का आधार बनाया गया। एक अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय की भी स्थापना हुई।

किन्तु जब बात प्रवर्तन की निकली तो यह सारे प्रयास उतने प्रभावशाली नहीं साबित हो पाए जितना उन्हें होना चाहिए था। आगे की चर्चा में हम उन कारणों पर बात करेंगे जिसके चलते अंतर्राष्ट्रीय समुदाय तथा विधि के प्रभावी अस्तित्व में होने के बावजूद भी इसके प्रवर्तन की कोई व्यवस्था नहीं हो पाई तथा समय समय पर शक्तिशाली देशों द्वारा इसका उल्लंघन किया जाता रहा।

किसी भी विधि के लिए उसके प्रवर्तन की व्यवस्था करना पहली शर्त है, कोई विधि अस्तित्व में विधि तभी मानी जा सकेगी जब कि उसके प्रवर्तन की एक सशक्त व्यवस्था की जा सके। उसके बिना यदि विधि को विधि कहा भी जाए तो व्यवहार में उसको विधि के रूप में स्थापित नहीं किया जा सकता। यही हाल इस अंतर्राष्ट्रीय विधि का भी हुआ।

व्यव्हार में जिन देशों ने अंतर्राष्ट्रीय विधि को अपने यहाँ अपना लिया अथवा अपने संविधान में संशोधन के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय विधि के प्रवर्तन के लिए अपने यहाँ आवश्यक प्रावधान को अपना लिया, उन देशों में तो उस सीमा तक इन कानूनों का पालन होना सम्भव हो पाया किन्तु यदि किसी संप्रभु देश ने इस कानून को अंशतः या पूर्णतः अपनाने से इनकार कर दिया तो उसे इस विधि के अपनाने के लिए किसी तरह मजबूर नहीं किया जा सकता।

यही हाल वर्ल्ड कोर्ट (अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय) का भी है जिन को सुनवाई की नाममात्र शक्ति ही प्राप्त है, वो मामलों की सुनवाई तभी कर सकता है जब कि राज्य स्वयं उसे अपने विरुद्ध ऐसा करने की अनुमति दे दें जो कि व्यवहारतः प्रवर्तन के लिहाज़ से सम्भव नहीं हो पाता।

देशीय विधियों और अंतर्देशीय विधियों में यही प्रवर्तन की संभाव्यता का अंतर है।

आज के हमारे समाज में विधि के प्रवर्तन की जो परिकल्पना है वो पूरी तरह इन्फोर्समेंट की क्षमता पर निर्भर करती है। संक्षेप में कहें तो कथित ईश्वर की इस सर्वश्रेष्ठ कही समझी जाने वाली रचना “मानव जाति” अभी सभ्यता के उस दर्जे पर नहीं पहुँच पाई है जहाँ विधि, शासन द्वारा बलपूर्वक प्रवर्तन कराये जाने वाली विषयवस्तु ना होकर जनसाधारण की कर्तव्य एवं दायित्व की चेतना से जुडी चीज़ समझी जाये। जिसका परिणाम यह हुआ की स्वतंत्र इकाई के रूप में अपने अपने देशों में भले ही सरकार तथा पुलिस/आर्मी जैसी संस्थाओं के बल पर देश विधि प्रवर्तन करवा सकने में सक्षम हों किन्तु जब बात एक अंतर्राष्ट्रीय संघ या वैश्विक समुदाय की आती है, जिसका कि अस्तित्व ही महज़ आपसी सहयोग एव सम्मान जैसी बुनियाद पर टिका हुआ हो, वहां यह प्रवर्तन सम्भव नहीं हो पाए।

सच कहें तो एक अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की हैसियत से हम अभी भी एक “सर्वाइवल ऑफ़ दी फिट्टेस्ट” के जंगल कानून में ही जी रहे हैं जहाँ ताक़तवर मुल्क कमज़ोर देशों को अपनी बपौती या अपना आर्थिक उपनिवेश बना कर रखे हुए हैं और उन के प्राकृतिक और मानव संसाधनों का किसी मशीन की भांति जम कर दोहन/शोषण कर पा रहे हैं….

सवाल तो अब मानव जाती के सभ्यता के सफ़र में अगले क़दम का है, आज वैश्विक समुदाय की स्वतंत्र इकाइयों के रूप में भले हम अपने नागरिकों को एक कानून का राज दे सकें हों किन्तु जब बात एक समूह के रूप में व्यवहार की आती है तो वहां अभी हम सभ्यता के उस स्तर को प्राप्त ही नहीं कर पायें हैं कि जहाँ सम्पूर्ण मानव जाति के एक ग्लोबल विलेज का नागरिक होने के सपने को पूरा किया जा सके।

पूर्व में कुछ समाजवादी विचारकों द्वारा वैश्विक अंतर्राष्ट्रीय नागरिकताजैसे सौहार्दपूर्ण क़दम उठाये जाने की वकालत की जाती रही है किन्तु कहीं सुरक्षा तो कहीं अन्य कारणों से इसको अब तक व्यव्हार में नहीं लाया जा सका है।

बहरहाल, जो भी हो, एक मजबूत तथा प्रवर्तनीय अंतर्राष्ट्रीय विधि का होना, ना केवल सम्पूर्ण धरती के मानवों के बीच समता, सद्भावना, एकता और वैश्विक भाईचारे की दिशा में महत्वपूर्ण क़दम होगा बल्कि इसके माध्यम से आतंकवाद तथा आर्थिक असमानताओं जैसी बड़ी और खतरनाक समस्याओं को भी हल कर सकने के प्रयासों को नयी दिशा मिलेगी….

देखना यह है कि मानव जाति सभ्यता के उस स्तर को प्राप्त कर सकने में अभी और कितना समय लेती है…

बुधवार, 9 जुलाई 2014

भारतीय पुलिस का खौफ

भारतीय पुलिस का खौफ -
हुआ कुछ यूँ की एक बार राजस्थान सरकार ने आवारा ऊंटों को पकड़ के बंद करने का फरमान जारी कर दिया, सारे ऊंटों में खलबली मच गयी,जिसको जिधर रास्ता मिला भाग गया,एक जंगल में ऊंट पकड़ने की गाड़ी और पुलिस आती देख ऊंटों का एक झुण्ड वहां से भी भागने लगा, भागते हुए ऊंटों ने एक अजीब नज़ारा देखा की उनके साथ साथ कुछ लोमड़ियाँ और खरगोश भी तेज़ तेज़ भाग रहे थे,ऊंटों के मुखिया ने उन से पूछा - "भई आर्डर तो हमारी गिरफ़्तारी का निकला है,तुम क्यों भाग रहे हो ?
इस पर उन लोमड़ियों और खरगोशों ने जवाब दिया-"आप नहीं जानते! अगर खुन्नस खाई पुलिस ने आपको यहाँ ना पाकर हमें पकड़ लिया तो बीस साल हमे अदालत में यह साबित करने में ही लग जायेंगे