क्या वाक़ई ज़िन्दगी
कोई गीत है
या कोई खेल तमाशा
या उम्मीदों सा सर फोड़ता
सख्त पत्थर है कोई
कभी ये गिराती है
तो कभी ये उठाती है
जब गिराती है ज़िन्दगी
तो ये पाताल पर भी नही रूकती
और जब उठाती है
तो पार कर जाती है
सातों आसमां
ज़िन्दगी आखिर है क्या
ज़िन्दगी भर
ये ये मेहनतकशों की दुनिया
इजारेदारी की गुलामी की
ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ
इन संगलाख बन्धनों को
तोड़ देना चाहता है
क्योंकि अब वो समझ चूका है
ज़िन्दगी वाक़ई अगर है तो
महज़ आज़ादी में ही
ज़िन्दगी है तो बस
बराबरी के निज़ाम में है
सिवाए इसके ये
ज़िन्दगी कुछ नही
कुछ भी नहीं.....
~इमरान~
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