सोमवार, 11 मई 2015

क़ुदरत की शिकायत

क्या आपको लगता है प्रकृति अपनी असीम देनों के लिए हमसे कभी शिकायत नही करती? शायद आपसे न करती हो...लेकिन मुझसे तो अक्सर करती है.....

कल सारी रात बूँद ने मुझसे हम सबकी शिकायत की है....धरती पर आते आते उसका मन उचाट हो रहा था....उसका मन था कि बादल के दामन में ही रह जाये वो....भला धरती पर जाए भी तो आखिर किस मक़सद से?..... किस उम्मीद से?

क्या धरती पर मौजूद उन खून की बूंदों को धोने के लिए जो तुम आये दिन बहाया करते हो? क्या उन आंसुओं में मिल जाने के लिए जो तुम उन आँखों को दिया करते हो जो रात दिन अपनी मेहनत से तुम्हारे महल खड़े किया करते हैं?....

नहीं....ये बूँद तो चली थी ज़मीन को एक नया सृजन देने..... नए जन्म देने के लिए...नए जीवन का संदेसा लेकर.... लेकिन तुमने उसे कैसी जगह दी.....गैर बराबरी की जगह....जहाँ इंसान को इंसान उसकी आदमियत से नही बल्कि मालियत ओ मिलकियत से समझा जाता है....


उसका तो मन था कि वो बादल के पास वापस लौट जाये....ऊंचाई से इतनी हसीन दिखने वाली तुम्हारी ये सजीली सी दुनिया उसे नज़दीक आते आते कितनी डरावनी सी लगने लगी की एक बार तो उसने तुम्हारे पास आने का इरादा ही तर्क कर दिया था....फिर बादल ने उसे संभाला

काश तुमने सूना होता....बूँद बादल से क्या कहती है....उसके लफ्ज़ तुम्हारे कानों में पड़े होते तो तुम भी सुनते....कि उसने बादल से कहा....
अये मेरे अज़ीज़...ये तुम मुझे किस तरफ भेजते हो...ये भला मेरा किस तरह इस्तेकबाल करेंगे....खून के धब्बे धुलने के लिए?....मेरे पनाह देने वाले बादल....मुझे इनके बदले बेहतर लोग दे और इन्हें मेरे बदले बुरी नेमतें आता कर.....
लेकिन बादल तो फिर बादल था.... उसे समझाता है....तू ठीक कहती है.... लेकिन ज़रा उन आंसुओं से भरे चेहरों की भी तो सोच...जो तेरी आमद के ना जाने कब से मुन्तज़िर हैं...जाकर उनके आंसुओं को कौन पोछेगा जो तू हिम्मत हार गयी तो....ज़मीन का सीना चीर कर दुनिया के पेट भरने का इंतज़ाम करने वाले तेरे इंतज़ार में पलक पावड़े बिछाए कब से तेरी बिरहा के गीत गा रहे हैं....इन्हें देख तो सही....तेरे सिवा कौन इनकी तकलीफ दूर कर सकेगा....मुझे बता उसका पता फिर मैं उसी को भेज देता हूँ....

बूँद ने अनमने भाव से एक बार फिर नीचे देखा...
उसके चेहरे पर विस्मय का एक भाव आया और अचानक खिलते फूल की कली जैसी मुस्कान ने उस भाव को अपनी अंजुली में भर कर कहीं छुपा सा लिया....
बादल को आखिरी बार मुस्कुराते हुए आँख में आंसू भरके उसे अंतिम अलविदा बोल वो सीधे उन आंसुओं वाले चेहरों की जानिब बढ़ चली..

मुझको कागज़ की खुशबु भी बड़ी रूमानी लगती है....इसमें से इश्क़ की बू आती है....क़ुरबानी की गन्ध होती है इसमें....उन हज़ारों ज़िन्दगियों की क़ुरबानी जो खामोश ही सही लेकिन बिलआखिर हुआ तो ज़िंदगियाँ ही करती हैं.....ऐसा लगता है मानो इनमे से कोई ज़िन्दगी आवाज़ दे रहा हो....हमसे कुछ कहना चाहती हो....कि देखो हमारी क़ुरबानी की लाज रख लेना...हमने अपना जिस्म देकर तुम्हें ये कागज़ बख्शा है.....इसपर ऐसे लफ्ज़ ही लिखना जिनसे दुनिया बेहतरी की जानिब गामज़न हो सके....

देखो हमारे जिस्म के टुकड़े काट कर जो वरक़ बनाते हो,अपने आराम के लिए जो ये हमारा क़त्ल करते हो, इनसे तुम नफ़रतें मत फैलाया करो तो कितना अच्छा हो...इनको प्यार मुहबत का ज़रिया बनाओ....हदें तोड़ो नई सीमायें न क़ायम कर लिया करो तो कितना बेहतर हो....तल्खियों के बीज क्यों बो देते हो इनके ज़रिये....हमारे बलिदान को शर्मिन्दा क्यों कर देते हो.....

लगातार मेरे कानों में ये बेजान कागज़ फुसफुसाया करता है और फिर मैं वाक़ई बेक़सूर बेगुनाह होते हुए भी शर्मिन्दा हो जाता हूँ....

क्योंकि उस वक़्त उस शिकायती आवाज़ के सामने मैं....महज़ मैं इमरान रिज़वी नहीं खड़ा होता....उसके सामने खड़ा होता है इक इंसान....जिसे जवाबदेह बनाया जा रहा होता है और जिससे शिकवा किया जा रहा होता है पूरी इंसानी ज़ात के खराब कर्मों के लिए....और फिर मैं......मैं लाजवाब होकर दरख़्त के क़दमों में गिर जाता हूँ....फ़क़त इतना कहकर...हमें माफ़ कर देना....हम नहीं जानते हम क्या कर रहे हैं.....

लिखने का मक़सद यह है कि यह प्रकृति ने मानव जाति को कितने तोहफे दे रखे हैं....जो हम इनका सदुपयोग करना सीख सकते तो कितना अच्छा होता...

काश हमने इन तोहफों का उपयोग धरती को रहने लायक एक बेहतर जगह बनाने के साधन के रूप में किया होता...लेकिन नहीं....हम तो मगरूर हैं खुद के प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना होने के दम्भ में....

पता नहीं यह गुमान इंसान को कब हुआ...की वो सर्वश्रेष्ठ है.....पता नहीं इस गुमान के चलते दुनिया को हमने कब बद से बदतर करना शुरू कर दिया....पता नहीं इस गुमान से हम बाहर कब निकलेंगे....जब निकलेंगे तब तक हमारे पास रखने को कुछ बचेगा भी या नहीं.....भविष्य के गर्भ में हमने किन बीजों का रोपण किया है और उससे क्या पैदा होने वाला है....प्रकृति के सब्र का बांध जिस दिन टूट गया उस दिन क्या होगा?

बस... यही सोच कर अक्सर मन कांप उठता है.....

~इमरान~

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