सोमवार, 11 मई 2015

ज़िन्दगी ढोवत हैं साहब

शाम ढल जाना चाहती थी...,सूरज, सफेद से लाल हो चला था...एक बूढा भिश्ती अपनी पीठ पर दो पानी के मश्क लादे धीमी गति से कहीं चला जा रहा था.....
रास्ते में एक शानदार हवेली पड़ती थी...उस आलीशान ईमारत के सामने एक लगभग पचास बरस का शख्स अपने पन्द्रह बरस के बच्चे के साथ खड़ा हुआ था...
बाप बेटे में कुछ बातचीत चल रही थी कि उसी वक़्त हवेली के अंदर से बच्चे का चचा बाहर निकला और दोनों भाइयों में किसी अहम मामले को लेकर गुफ्तगू होने लगी...
इस दौरान छोटा लड़का बाहर रास्ते पर लोगों को आते जाते देखने लगा...उस की नज़र सामने से पीठ पर पानी की दो मश्क लादे जा रहे एक भिश्ती पर पड़ी...बच्चे ने रौबीले से अंदाज़ ओ लहजे में बूढ़े से पूछा-
ये क्या ढोकर ले जाते हो?

"जिन्दगी ढोवत हैं मियां साहब...."

इतना भर कह वो बूढा आगे बढ़ गया.... बच्चे का चचा अब वापस जा चुका था.... वो फ़ौरन भागा भागा अपने बाप के पास गया और पुछा-

"अब्बा, ये सामने देखें.. जो बूढा जा रहा है ये कौन है?

हाँ बेटा,ये भिश्ती होते हैं,

और ये क्या सामान ढोते हैं?

ये पानी पहुंचाते हैं सब जगह...अभी भी अपनी पीठ पर लदी मशक में ये पानी ढोकर ले जा रहा है

फिर उसने मुझसे ये क्यों कहा की वो ज़िन्दगी ढोता है?

इस सवाल ने बाप के चेहरे की मुस्कराहट खत्म कर दी थी.....लहजे में नरमी को खत्म करके और बिना सख्ती लाये उसने बेटे को जवाब दिया...

"बेटा...पानी को ज़िन्दगी इसलिए कहा जाता है क्योंकि उसके बिना हम ज़िंदा नही रह सकते....इसीलिए उसने तुमसे कह दिया कि वो ज़िन्दगी यानी पानी ढोता है....चलो अब मगरिब का वक़्त हो चला है अज़ान होने वाली है, तुम अंदर जाओ और नमाज़ की तयारी करो...मैं भी आता हूँ..

बच्चा जिज्ञासू था..... उसने फिर पूछा- लेकिन अब्बा वो सीधे सीधे यह भी तो कह सकता था की वो पानी ले जा रहा है...उसने ज़िन्दगी ही क्यों कहा?

बच्चे मन की जिज्ञासा तो अभी बाकी थी  लेकिन बाप के सब्र का बाँध टूट चुका था....बेटे को झिड़क कर अंदर भेज दिया...

लेकिन भिश्ती के पानी ढोने और ज़िन्दगी ढोने के दरमियान का फर्क और उसके जवाब के पीछे का दर्द उस बाप में कहीं मौजूद इंसान के अंदर अंदर अजीब सी शर्मिंदगी पैदा करने लगा था...

उस बूढ़े की मुस्कुराती आँखों और सौम्य जवाब की वजह से उसके बेटे के बालमन में जागा सवालों और जज़्बातों का तूफ़ान और उन सवालों के पूछते वक़्त बेटे की आँखों में उस बूढ़े के लिए अजब सी मुहब्बत और अब्बा के जवाबों का कौतुहल और फिर आखिर में उसका अपने बेटे को झिड़क कर अंदर भगा देना और इस झिड़कने से बेटे की आँख से गिरी आंसू की बूँद........!!!

ये सब मिलकर उसके ज़ेहन में एक अजीब सी हलचल पैदा करने लगे थे....ये हलचल किसी तूफान में बदलती उसके पहले ही अज़ान की आवाज़ आ गई,बच्चा वज़ू बनाये नमाज़ के लिए तैयार बाहर आ चुका था, उसकी आँखों में बूढ़े की तैरती शक्ल, बाप की डांट का खौफ और अंतर्मन की बाकी रह गयी जिज्ञासा और बेजवाब रह गए सवालों का मिला जुला भाव (जिसके लिए आप जो मुनासिब समझें लफ्ज़ चुन लें,अभी मेरे पास वो लफ्ज़ नही हैं,जब आएगा तो बता दूंगा...) अभी भी मौजूद था......

बाप ने बेटे की आँखों में देखना चाहा तो ज़रूर , लेकिन आँख न मिला  पा रहा था...
बहरहाल....दोनों ने मस्जिद का रुख किया....लेकिन पता नही क्यों बार बार वो शख्स मुड़कर अपनी हवेली के फाटक की तरफ देखता.....इधर अज़ान अपने आखिरी चरण में पहुँच चुकी थी..., अपने ज़ेहन के ख्यालों के बवंडर को उसने एक मर्तबा झटक के बाहर फेंकने की कामयाब या नाकाम सी कोशिश की और क़दमों में तेज़ी लाते हुए मस्जिद की जानिब बढ़ चला....

दरअसल..... उसे अपने घर की आलिशान दीवारों से खून टपकता नज़र आने लगा था....

~इमरान~

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी कहानी.
    "लेकिन भिश्ती के पानी ढोने और ज़िन्दगी ढोने के दरमियान का फर्क और उसके जवाब के पीछे का दर्द उस बाप में कहीं मौजूद इंसान के अंदर अंदर अजीब सी शर्मिंदगी पैदा करने लगा था..."
    "दरअसल..... उसे अपने घर की आलिशान दीवारों से खून टपकता नज़र आने लगा था...."

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