रविवार, 26 अप्रैल 2015

मेरी काल्पनिक प्रेयसि

मेरी काल्पनिक प्रेयसि
सुबह जगाती है मुझे
अपनी आवाज़ के
नर्म साज़ों से
मुझे बहलाती हुई
अपने इक़रार के
पुरअम्न नाज़ों से
टूट कर चाहते हुए
मुझको दिलासे देती
जी भर वो प्यार के
शिकवे भी सुनाती है
फिर नशीली शब् को
सिमटती हुई सी
समा जाती है
मेरे सीने में कहीं
खो सी जाती है
और फिर बज़रिये
आँखों के रास्ते से
दिल में उतर जाती है
कहीं खो सी जाती है
मेरी काल्पनिक प्रेयसि फिर
सुबह जगाती है मुझे...

~इमरान~

2 टिप्‍पणियां: