रविवार, 26 अप्रैल 2015

धुआं देता था आग का पता

धुआं देता था आग का ही पता
रास्ता लेकिन पानी को न मिला

रास्ते खूब किये तय हमने मगर
कोई मन्ज़िल या हमसफ़र न मिला

शोर होता रहा शब् भर मेरे गिर्द
बात क्या थी ये कुछ पता न चला

फ़िक्रें घेरे रहीं यूँ माज़ी की
मुस्तक़बिल को ही मेरा घर न मिला

टेढ़े रस्तों पे खूब भटका किया
कोई सीधा सा रहगुज़र न मिला

ज़िन्दगी यूँ रोकती रही मुझ को
मौत को खेंचने का गुर न मिला

उनकी आमद के निशां हैं तो यहां पर मौजूद
वो यहां आया था पर उसे मैं न मिला

~इमरान~

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