रविवार, 26 अप्रैल 2015

गुलामी की ज़ंजीरें

इक तय ढर्रे पर
चली आ रही है
दस से पांच की
वो उजरती गुलामी
जकड़ी हुई सरमायेदारों के
वहशी पंजो में
छटपटाती सी ज़िन्दगी
उसे समझ बैठी है
अपने जीवन की नियति
इसे ये भी नहीं मालूम
इसके लिए तो
सारा जहान रक्खा है
क़ुदरतों का निज़ाम रक्खा है
लेकिन निज़ाम ने इसे
महदूद कर दिया
किसी उजरती गुलामी में
इसे बताना होगा
कि ये दुनिया
उनकी नही हमारी है
इसमें हम सबकी हिस्सेदारी है
यही चिंगारी सुलगा कर
दिलों में उनके
लाल मशाल जलानी है
हम बहुत जी लिए गुलामी में
अब तो दुनिया नई बनानी है ....

~इमरान~

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