गुरुवार, 11 सितंबर 2014

दास्तान ए शजर

बारहां फैले ज़मीं पर हजारों दरख़्त
और आंगन में खिली मेरी रात की रानी,
नन्हे गुलों में महकती बला की खुशबू
अन्दर बढ़ते क़दमो को रोक लेती है,
चांदनी से चमक रही नन्ही पत्तियां
खामोश संगीत में गाती हुई कहती हैं
ज़रा महसूस तो करो इस कुदरत को
अँधेरी रातों में भी मसरूफ इस तमाशे को
मुख़्तसर ज़िन्दगी का हसीन नज़ारा
नजरो में आने से रह न जाए ,
इन दरख्तों के उभरे हुए खामोश तनों में
कोई जज्बात भी बसते हैं क्या ,
किसी ज़िन्दगी की कोई झलक
खामोश मुजस्समों में भी बसती है क्या
जिस कुदरत के तुम करिश्मे हो ,
उसी की निशानी मैं भी हूँ ,
खामोश हूँ तो क्या हुआ ...
मेरी ख़ामोशी भी बोला करती है
कुदरत के कुछ अनछुए पहलुओं से
तुम्हे आशना करवाता चलूँ ,
जिन्हें तुम हमसे जुदा कर ले गए
वो टुकड़े भी कुछ बोलते हैं क्या,
जिन कागजों पर तुम कलम घिसा करते हो,
वो दरअसल मेरा सूखा गोश्त है,
हमारी लाशों के सूखे टुकड़े
तुम्हारे घरों को बनाया करते हैं
कभी खिड़की तो कभी दरवाज़ा बन कर
तुम्हारी हिफाज़त में हर वक़्त,
कभी तुम्हारी शान ओ शौकत
तो कभी बेजां सहूलतों के नाम,
हम ब-ज़रिये अपनी लाशों के
तुम्हारा सब इंतज़ाम करते हैं 
इस तोहफे के लिए हमारा कभी
एक शुक्रिया तो कहते जाओ
ए औलाद ए आदम ,
ज़रा रुको तो सही
कहीं तुमसे कुछ खो ना जाए

(इमरान)

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