वैचारिक/दार्शनिक अर्थों में हिंसा का अर्थ केवल रक्तपात करना या बन्दूक चलाना ही नही होता.. हिंसा का अर्थ बल प्रयोग या किसी भी प्रकार का नैतिक अनैतिक दबाव भी हो सकता है।
हिंसा रक्तपात का समानार्थी शब्द नही है ,हर किस्म का दबाव या बल प्रयोग हिंसा की श्रेणी में ही आता है
किसी वस्तु (मान लें सत्य) का आग्रह भी अगर ह्रदय परिवर्तन या नैतिकता का भाव पैदा कर पाने के बजाए भौतिक विवशता पैदा करता है तो यह भी हिंसा की श्रेणी में आएगा ।
अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन के दौरान गांधी के सत्याग्रह ने भी अंग्रेजों का हृदय परिवर्तन न करके आंदोलनरत जनता के दबाव में उनको भौतिक तौर पर भारत छोड़ने को विवश किया था।
इस प्रकार इस देश में अहिंसा का सबसे बड़ा प्रतीक समझे जाने वाले महात्मा गांधी स्वयं अपने ही अहिंसा के सिद्धांत की कसौटी पर खरे नही उतरते थे बल्कि उसके विपरीत जाते ही नज़र आते हैं ।
हम कम्युनिस्टों पर हमेशा रक्तपात वाली हिंसा का आरोप लगता आया है, जबकि वास्तविकता यह है कि कम्युनिस्ट पहले कभी भी हिंसा शुरू नहीं करते बल्कि उसका प्रतिकार मात्र करते हैं, लेकिन शासक वर्ग आसानी से जनता को उनका हक नहीं देते तो सत्ता जनता के लिए कैसे छोड़ेंगे? तो कम्युनिस्टों को भी आत्मरक्षा और विजय प्राप्ति के लिए इन ज़ालिमों पूंजीपतियों के खिलाफ बन्दूक उठानी ही पड़ जाती है ।
जहाँ तक हिंसा के प्रकारों का प्रश्न है तो हिंसा दरअसल तीन प्रकार की होती है :-
1-व्यतिगत हिंसा 2-भीड़ की हिंसा
( इन दोनों के बारे में आप जानते ही होंगे, आपसी लड़ाई झड़े, भीड़ के दंगे मारपीट)
अंत में 3- संरचनागत हिंसा
सामाजिक राजनीतिक स्तर पर संगठित हिंसा का सबसे बड़ा उदाहरण राज्यसत्ता है।
यह राजसत्ता की हिंसा दरअसल शासक वर्ग का शासित वर्गों के ऊपर अपना अधिनायकत्व थोपने का का उपकरण है। जहाँ शासक वर्ग अपने सहायक तत्व जैसे संविधान, राज्य आर्मी, पुलिस, अर्धसैनिक बल, ख़ुफ़िया एजेंसिया इत्यादि के माध्यम से लॉ इन्फोर्समेंट तथा अपने अन्य सांस्कृतिक वैचारिक उपकरणों के माध्यम से शोषित वर्ग को एक व्यवस्था विशेष (पढ़ें पूंजीवाद) में रहने को विवश करता है जहाँ एक उधोगपति पूरे देश के आर्थिक संसाधनों पर 90% जनता से ज़्यादा अधिकार रखता है और शेष जनता बमुश्किल अपनी दो जून की रोटी जुटा पाती है,
बाकी ताज़ा उदाहरण सलमान को एक घण्टे में जेल फिर बेल से लेकर भारत में रोज़ाना भूख कुपोषण से होने वाली सैंकड़ो हज़ारो रिकॉर्डड अंरिकार्डेड मौतों के रूप में आपके सामने इस महान संवैधानिक व्यवस्था की संरचनागत हिंसा का वीभतस्तम रूप मौजूद है ही...और मिसालें भी आती रहेंगी ।
हम कम्युनिस्ट हिंसा नहीं करते, वो केवल सत्ता और इसके सहायक उपकरणों द्वारा सर्वहारा समाज पर लादी गयी जबरन नैतिक हिंसा तथा व्यवस्था विशेष में जीने को और इस प्रकार उनकी ज़िन्दगी नर्क बना देने की इस "सिस्टम" की संरचनागत हिंसा का प्रतिकार मात्र करते हैं।
इस प्रतिकार को रोकने के लिए शासक वर्ग अपनी पूरी ताक़त (पुलिस,आर्मी,मीडिया,बल) इत्यादि सब झोंक देता है,मजबूरन अपना हक़ मांगने आये मज़दूरों को भी बन्दूक उठाकर लाल ध्वज के साथ क्रांति की रणभेरी बजानी पड़ ही जाती है ।
क्रांति और व्यवस्था की हिंसा का प्रतिकार उस देश काल परिस्थिति पर निर्भर करता है जहाँ क्रांति की जानी है....वहां के समाज व्यवस्था और तन्त्र का वैज्ञानिक अध्ययन करके क्रांति की रणनीति तैयार की जाती है।
संविधान, देशभक्ति, राष्ट्रवाद, धर्मान्धता के मीठे जुमलों में जनता को मूल मुद्दे (पूँजी के शोषण) से भटका देना और शोषित मेहनतकश को एक एक दाने के लिए तिल तिल कर मरने के लिए मजबूर करना....हिंसा का सबसे वीभत्सतम रूप यदि कोई है तो यही है।
जिस वक़्त रशिया में क्रांति संपन्न हो गयी थी तब कुछ ईसाई पादरी जाहिल और अनपढ़ किसानों के बीच जाकर चुपके चुपके उनको भड़काते थे, लेनिन एंटी क्राइस्ट हैं, शैतान नास्तिक है, इसके पीछे क्यों दीवाने हो? नर्क में जलोगे।
वहां के अनपढ़ जाहिल किसानों ने उन पादरियों को दो टूक जवाब दिया-"भले से लेनिन इसा के दुश्मन हों लेकिन उन्होंने हमें हमारी ज़मीन वापस दिलाई है"
तो साबित हुआ की वर्ग चेतना का सम्बन्ध "पढ़े लिखे" होने से नही होता,बल्कि सही मार्क्सवादी नेतृत्व द्वारा सर्वहारा के बीच जाकर उनमे वर्ग चेतना और वर्ग संघर्षों की वास्तविकता का आभास कराने से होता है।
यह कार्य अलग अलग देशों में वहां की तत्कालीन परिस्थितियों के अध्यन के पश्चात सही रणनीति बनाकर ही किया जाता है,किसी एक नेतृत्व की नीति को दोहरा कर नहीं ।
जैसे रशिया में सर्वहारा की स्थिति और क्रांति की संभावनाओं को भांप कर साथी लेनिन ने किया ,
लेकिन चीन में साथी लेनिन के तरीके को दोहराने के बजाये वहां की तत्कालीन स्थितियों का आकलन और अध्यन करने के बाद सर्वहारा के महान शिक्षक चेयरमैन माओ ने अपने तरीके से क्रांति को संपन्न किया ।
भारत में मौजूद खुद को "लेनिनवादी" या "माओवादी" कहने वाले कथित मार्क्सवादी दल/संगठन मौजूद हैं,
जबकि नक़ल के खिलाफ लेनिन और माओ दोनों ही थे लेकिन भारत के लोग नकल करना कैसे छोड़ सकते हैं, यह तो हमारे स्वाभाव में शामिल हो चुकी है....
पिछले 60-70 सालों में अभी तक भारत के सर्वहारा समाज और उनकी राजनैतिक/सामाजिक स्थिति,भारत के पूंजीवाद और उनकी सहायक संस्थाएं जैसे संविधान, धार्मिक,जनवादी मानवतावादी राजनैतिक दल,इस पूरी व्यवस्था के दामन पर लगे खून के धब्बे धोने वाले डिटर्जेंट की भूमिका निभाने वाले अलाने फलाने अधिकार आयोग आदि इत्यदि की व्यवस्था और तन्त्र का अध्यन करने और उसके बाद सर्वहारा के बीच जाकर उनमे वर्ग चेतना किस सीमा तक और कितनी जागृत कर सकने में सफलता प्राप्त कर सके हैं?
भारत में खुद को कम्युनिस्ट कहने वाली जनवादी पार्टियों की स्थिति किसी से छिपी नही है, इनका एक ताज़ा उदाहरण लीजिए
हाल ही में केंद्र सरकार ने कर्मचारियों द्वारा समय से पहले पीएफ से पैसे की निकासी पर टीडीएस कटौती का फैसला लिया ,फैसले के विरोध में ईमेल के दौर में जीने वाले आरएसएस के मज़दूर संघ और कांग्रेस के श्रमिक संगठन इंटक ने सरकार को "चिट्ठी लिखकर विरोध" जता दिया ।
बाक़ी "कामरेड वामपंथी" श्रमिक सन्गठन वालों की भी सुन लीजिए, उनकी तरफ से हर साल दो साल पर होने वाली आम हड़ताल की तरह इस बार भी किसी हड़ताल या प्रदर्शन की चेतावनी दी गयी है,
ये समझौतावादी खून के धब्बे साफ करने वाली धुलाई पोंछाइ टाइप हड़ताल और धरना प्रदर्शन वाले समझौते होते रहेंगे...व्यवस्था की उम्र लंबी होती रहेगी...
बाक़ी कोई वैज्ञानिक अध्यन करके भारतीय सर्वहारा समाज में में वर्ग चेतना जागृत करने के लिए आप वामपंथी दल क्या कर रहे हैं?...क्या हम मान लें कि आपसे न हो पायेगा?
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