बुधवार, 4 मार्च 2015

ट्रेन का आधा घण्टा

बर्थ के पास चार्जिंग पॉइंट न होने के चलते ट्रेन मे दरवाज़े के पास वाली जगह फर्श पे ही आधा बैठ गया हूँ और मोबाइल चार्ज कर रहा हूँ,वक़्त कट जाये और बोरियत न हो लिहाज़ा नोटपैड ऑन करके लिखने बैठ गया।

32% बैटरी चार्ज हो चुकी है, तुमसे बात होते होते नेटवर्क चले जाने की वजह से फोन जो कटा तो अभी आधे घण्टे बाद तक नेटवर्क की कोई उम्मीद नज़र नही आ रही है, ऊपर से हर दस मिनट के बाद ये पिन लूज़ होने के कारण फोन ढंग से चार्ज भी नही हो पा रहा।

पॉइंट से लटकता चार्जर का तार बार बार मेरे चेहरे को ऐसे छू रहा है मानो तुम्हारी ज़ुल्फ़ें मुझसे छेड़खानी कर रही हों।

ट्रेन के दरवाज़े और खिड़की से आती मस्त मस्त हवा तुम्हारी उदासी और बेक़रारी की कहानी मेरे कानों में फुसफुसा रही है।

बाहर दिखाई पड़ते और तेज़ी से ओझल हो जाते अपने ऊपर पीलापन की चादर ओढ़े अधलेटे उजड़े से खेत बेमौसम की बरसात के बाद किसानों का दर्द बयान कर रहे हैं।

एकाध चमकती आँखों वाला रात्रिचर प्राणी भी अपने सामने रेंगती इतनी बड़ी इल्ली (ट्रेन) को देखकर चौंकता हुआ इधर उधर तकता नज़र आ ही जा रहा है। और आज इन सब में चाह कर भी मैं कोई रुमानियत तलाश नही कर पा रहा हूँ।

बगल से वक़्त बेवक़्त गुज़रती दूसरी ट्रेनों को देखने पर एकबारगी तो ऐसा सा लगता है कि ये सामने वाली ट्रेन चल रही है या अपनी वाली रुक गयी है। फिर उसके गुज़र जाने पर भरम खुलता है की दोनों बराबर चल ही रही थीं।
ऐसे मौक़ों पर तुम्हारी याद के साथ साथ दुष्यंत कुमार का यह शेर बड़ा दिल जलाता है....

"तुम किसी रेल सी गुज़रती हो,
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ"

खैर, ये डिब्बा तो आज एकदम फुल है। अजब अजब तरह के लोगों की गजब गजब प्रकार की बातों की आवाज़ें आ रही हैं।

वापसी का रिजर्वेशन न मिल पाने के चलते अम्मी को लेडीज बोगी में बिठाकर खुद इस जनरल बोगी में चढ़ गया था। सौभाग्य से एक बर्थ खाली मिल तो गयी लेकिन डिब्बे में बड़ा शोर है,कोई अपने मोबाइल में गाने बजा रहा है और कोई मस्त लेटा भजन सुन रहा है,

मेरे सामने वाली बर्थ पे एक बॉडी बिल्डर टाइप लौंडा लेटा हुआ है। उसके नीचे विंडो के आमने सामने दो वाली सीट पर बैठी लड़की के साथ उसका नैन मटक्का अभी शुरू हुआ ही था कि लड़की के साथ आई एक बूढी अम्मा ने उन दोनों की हरकतों को ताड़ लिया और लड़की की कमर के पास ले जाकर हल्के हाथ से इशारे से कुछ "समझा" दिया।

लड़की ने एकबारगी दादी की चुटकी से हुमक के अपना मासूम सा चेहरा एकदम बुरा और उदास सा बना लिया।
अब उसकी आँखों से ही उसके कमर पे पड़ा संभावित नील और नील का का दर्द साफ़ नज़र आने लगा था।

दादी की नसीहत के बाद से उसका चेहरा वैसे ही उतरा हुआ है जैसे तेज़ शुरू हुई बारिश के अचानक रुक जाने पर उन बच्चों का मन उतर जाता है जो बूंदे पड़ना शुरू होते छत पे पानी में छपर छपर करने बस चढ़े ही थे की बरसात थम गयी।

लड़का भी एक बार "ओ शिट" मुद्रा का मुंह बनाकर नाउम्मीदी में अपना "समाजवादी लैपटॉप" खोल कोई मूवी देखने बैठ गया है।

पीछे वाली बर्थ से कुछ सियासी गुफ्तगु की आवाज़े सुनाई देने पर कुछ अच्छी चर्चा सुनने की लालसा में उधर का रुख किया ही था की एक वाणी ने पलभर को दिल ही दहला दिया।

-""विकास तो हो ही रहा है भाईसाहब,अब देखिये,चाइना की हालत वैसहे पतली हुई गयी है सारे सैनिक हटा लिए हैं..... उधर पाकिस्तान भी भीगी बिल्ली बना हुआ है,इस मियांवे नवाज़ की क्या हैसियत है मोदी के आगे?? क्या कहा?? कश्मीर की सरकार?अरे भाई इतना भी नही समझते आप तो बात करना ही बेकार है....अब शुरुआत में सत्ता पाने के लिए थोड़ा समझौता करना ही पड़ता है फिर वहां कश्मीर में भी तो विकास......""

कोई मूँछ धारी भीमकाय बाबू क्लर्क टाइप अंकल अपने पूरे संभव वाकचातुर्य और बुद्धि कौशल से संगठन धर्म निभाने में व्यस्त थे और बड़ी चतुराई से लोगों को मूर्ख बनाने का अपना आदिकालीन कार्यक्रम चालू किये हुए थे।
बहरहाल, सुबह 4 बजे से लगातार जागने और दोहरा ट्रेन का सफर करने के साथ साथ तुमसे बात न हो पाने की खुन्नस के चलते इसके आगे कि "विकास गाथा" सुनने की हिम्मत भी न कर सका, (कह तो ऐसे रहा हूँ की जैसे सब कुछ् ठीक होने पे कर पाता)

इधर ये आवाज़ खत्म हुई थी की नीचे से एक सदा और आई,
-"ससुरी के आउटर पे रोक न दें बस,स्स्साला एक बार जौनपुर उतार जाए उसके बाद जफराबाद में एक घनटो रोक दें तो अपने को दिक़्क़त नय..."

यह सुन के तीन बन्दों की दूरी पे बैठे एक अन्य महाशय ज़ोर से हँस दिए,उनकी हँसी सुनकर पहले वाला बन्दा उनकी तरफ मुखातिब हुआ और पूछा

-"आप भी जौनपुर जा रहे हैं क्या?
"जी हाँ जा तो रहा हूँ"
"तभहे तूँ इतनी ज़ोर से हसे हो"
"दोहरा बा की ना ?केहर जाहियो जौनपुर"
"सनकर का है"
"देतेओ राजू कउनु का हो"
    
(दो ठेठ जौनपुरिये एक दूसरे के गृहनगर भेद खुल जाने पर इसी लहजे में बतियाया करते हैं...नोट-"हम ठेठ जौनपुरिये नही हैं,लखनव्वा मिक्सचर हैं,और दोहरे का मतलब समझने के लिए एक बार जौनपुर विजिट करना होगा)

खैर ..... दस बजकर अट्ठाइस मिनट हो चले हैं और नेटवर्क आने के आसार नज़र नही आ रहे।

लम्भुआ स्टेशन आने वाला है और उसके बाद बदलापुर फिर अपना जौनपुर। तब तक एक घण्टा बगल में बाआवाज़ बुलंद अपनी गर्लफ्रेंड से बात कर रहे युवक की आवाज़ मेरे कानो में पड़ती रहेगी और मैं कुछ नेटवर्क के गायब होने और कुछ तुम्हारी मसरूफियत के चलते इधर बैठ इसकी लल्लो चप्पो सुन सुन कर कुढ़ता रहूंगा।

अब तो ठण्ड लगना भी शुरू हो गयी है,इलू फिलु भी फैला हुआ है। लिहाज़ा मैंने ट्रेन का दरवाज़ा बन्द करवा दिया और अब अगरबत्ती सुलगाने जा रहा हूँ....बाक़ी की फिर कभी।

~इमरान~

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