मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

धर्म और नैतिकता

राजस्थान मेघदूत में प्रकाशित (चित्र संलग्न)

कभी किसी खाली वक़्त में गौर से अपने आस पास के मज़हबी लोगों को देखिएगा....अजब हैरान परेशान से आत्मसंतोष का ढोंग करते ये लोग आपको एक अलग ही दुनिया की अनुभूति देंगे....मौत के बाद किसी संभावित काल्पनिक ज़िन्दगी की आस में अपना जीवन बर्बाद करते हुए ऐसे लोग आपको हर जगह दिख जायेंगे....महज़ धर्म की बिना पर किसी से प्रेम या नफरत करना ऐसे लोगों का प्रधान गुण होता है....
कोई व्यक्ति कितना ही बुरा क्यों न हो , यदि वो इनकी जाती और इनके धर्म का अनुयायी है और वो किसी ऐसे नेक और शरीफ आदमी से भिड़ गया है जो किसी दुसरे धर्म को मानता है तो यह लोग अपने धर्म/मज़हब वाले व्यक्ति की लाख गलती के बावजूद भी उसी अपने सहधर्मी का ही साथ देंगे .....
इस तरह की अंध पक्षपातपूर्ण धार्मिकता सबसे पहले व्यक्ति की न्याय क्षमता और इस प्रकार उसके सही गलत की समझ और सच के साथ खड़े होने की सलाहियत को ख़त्म कर देती है.....और फिर जो इंसान सही के साथ खड़े होने की काबिलियत नही रखता उससे आप क्या उम्मीद कर सकते हैं की वो अपने जीवन में कुछ कर सकेगा?
अच्छा इंसान बन कर समाज के लिए कुछ करने की बात तो छोड़ ही दीजिए,ऐसे लोग खुद अपनी अंतर्मन की आवाज़ को मार के अपने आप को ही धीरे धीरे समाप्त कर देते हैं.....
सही और गलत की पहचान हर इंसान के अंदर स्वाभाविक रूप से होती है...इसके पीछे कोई धर्म नही बल्कि उसकी स्वाभाविक संवेदना होती है जो उसे सही और गलत की समझ प्रदान करती है....कुछ लोगों का कहना है कि इस सही और बुरे के भेद को स्पष्ट करने वाली भावना व्यक्ति में धर्म से आती है....लेकिन ऐसा नही है....अक्सर लोग धार्मिक होते हुए भी अपने धर्म की बहुत सारी बातें नही मानते,या मानते भी हैं तो उसको कभी व्यव्हार में नही लाते....क्योंकि उनका अंतर्मन और उनकी सही को सही और गलत को गलत समझने की स्वाभाविक मानवीय तार्किकता उन्हें ऐसा करने से रोकती है....जैसे इस्लाम में चार शादियों की अनुमति है लेकिन बहुसंख्यक मुस्लिम इसे सही मानते हुए भी व्यवहार में 4 शादियां नहीं करते , ऐसा वो क्यों करते हैं?क्योंकि उन्हें कहीं न कहीं मन में इस बात का अहसास होता है कि ऐसा करना गलत होगा...यह अन्याय होगा अपनी जीवन संगिनी से जो उसके लिए अपना घर परिवार छोड़ उसके प्रेम में खुद को समर्पित किये हुए उसके साथ रह रही है....जो उसके सुख दुःख की साथी रही है....
यह भाव मनुष्य को धर्म नही बल्कि उसका अंतर्मन कहें या उसकी मानसिक तार्किकता कहें,या धर्म से इतर जो भी कह लें ,उसी से मिलता है....अक्सर धार्मिक जन यह दावा करते हैं की नैतिकता का मूल स्त्रोत धर्म है....क्या ऐसा वास्तविकता में है? यदि हम इसकी गहराई में जाएंगे तो पता चलेगा की वास्तविकता में यह सत्य के एकदम नज़्दीक से होकर गुज़रता एक ऐसा मिथ्या विचार है जो सत्य की तरह दिखने के कारण सत्य प्रतीत होता है..वास्तव में नैतिकता तो मनुष्य के अंतर्मन में ही वास करती है....उसका कहीं बाहर से आना संभव ही नही है....इसका कारण और इसके पीछे का तर्क भी वही है जो उपर लिखा जा चूका है.....नैतिकता तो सही को सही और गलत को गलत कहने की सलाहियत का नाम है....वो गलत चाहे धर्म के नाम पर हो रहा हो या किसी वाद के नाम पर....और सही को सही कहना और उसके साथ खड़ा रहना भी नैतिकता है....चाहे वो सही बात करने वाला व्यक्ति आपका कितना ही बड़ा प्रतिद्वंदी क्यों न हो....
एक बात इस विषय में और लिखूंगा....कभी मन से इसको सोचिये और आज़मा कर अवश्य देखिएगा....एक पल को अपने मन से धर्म,जाती,देश मज़हब और वाद की समस्त भावनाओं को अपने मन से एकदम समाप्त करके उनका एकदम से विसर्जन करके फिर अपने आस पास मौजूद इंसानों को देखिएगा....फिर देखिएगा आपके मन में मानवता के लिए कितना प्रेम उमड़ता है....सब लोग आपको आपके अपने लगने लगेंगे....बिलकुल सगे रिश्तेदार जैसे और यह सच भी है की दुनिया के सब इंसानों के बीच आपस में खून का रिश्ता है....
यह तो धर्म/वाद/सीमायें हैं जो उन्हें एक दूसरे में भेद करना और अलगाव पैदा करना सिखाती हैं....यह सब विकार है हमारे पैदा किये हुए  जो इंसान को इंसान से अलग करते हैं....
हो सकता है कोई धर्म अपने समय की व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन रहा हो...लेकिन आज के दौर के लिहाज़ से वो आंदोलन परिमार्जित हो चुके हैं....कोई भी आंदोलन...कोई विद्रोह या कोई सुधार समय के साथ ही कालातीत हो जाता है और एक समय ऐसा आता है कि जब परिस्थितयों के चलते वो आंदोलन या सुधार वर्तमान हालातों में लागू किये जाने के लिहाज़ से सुधार के बजाये बिगाड़ बन जाता है....
हो सकता है कोई विचार किसी समय के लिहाज़ से वरदान रहा हो,लेकिन वक़्त के साथ साथ वो वरदान अभिश्राप भी बन जाता है यह भी सत्य है....क्योंकि सृष्टि सदैव परिवर्तनशील है....
मनुष्य की आवश्यकताएं...समाज में व्याप्त दोषों के आधार पर उसमें सुधार के लिए आवश्यक ज़रूरतें और उन सुधारों के मापदंड सदैव परिवर्तित होते रहते हैं स्थितियों के साथ साथ....जिस काल में जिस समाज में जैसे हालात होंगे उनमें उन्हीं हालातों और स्थितियों के अनुरूप सुधार किया जाएगा....
हज़ार हज़ार साल पुराने फार्मूले हमेशा लागू नही किये जा सकते उनपर....ऐसा करेंगे तो सुधार की बजाये बिगाड़ होना निश्चित ही है....
लेकिन धर्म को तो ज़िद है कि उसे बदलना नही है...धर्म को ज़िद है की बदलना तो समाज को ही है....एक मिसाल देता हूँ.....आप कोई कपडा बनवाते हैं,समय के साथ शरीर का माप बदलने के साथ वो कपड़ा आप हमेशा नही पहन सकते ,उसे बदलना होता ही है, लेकिन कपडा अगर ज़िद थाम ले की आपको तो मुझे ही पहनना है,तो आप क्या करेंगे...ज़ाहिर है उसे फेंक देंगे....
यह मानव स्वभाव है कि जो इसके अनुसार नही चल सकता उसकी वर्तमान परिस्थितियों के लिहाज से यह उसका परित्याग कर देता है....यही हाल धर्म का भी होना है और इसका आरम्भ विज्ञानवाद और तर्कवाद के प्रति बढ़ती जनमानस की रूचि के रूप में हो ही चूका है.....एक न एक दिन मानवता धर्म को भी पुराने कपडे की भांति उतार कर फेंक देगी.....
~इमरान~

रविवार, 28 दिसंबर 2014

गर तुम खुदा थे

राजस्थान मेघदूत में प्रकाशित (चित्र संलग्न)

गर तुम खुदा थे ,

तो रोक लेते पेशावर में अपने बन्दों को,

बहाने से नन्हे बच्चों का खून,

खून जो उनके माँ बाप का था,

उनकी रगों में दौड़ता,

उन्हें फर्श पर बहा के,

क़त्ल कर दिया उनका भी,

साथ बच्चों के माँ बाप ने,

दफन कर दिया दिल अपना भी,

तुम अगर खुदा थे,

तो न लूटने देते किसी दामिनी को,

सर ए बाजार न नीलाम होने देते,

चौरासी के मज़लूमों को,

अगर तुम थे वजूद में मौजूद,

रोकते गुजरात में दरिंदों को,

बड़ी लड़ाइयों में पीसने वाले मासूम

बच जाते मरने से,

लेते ही तेरा नाम,

आ जाता कोई फरिश्ता आसमान से,

और रोक लेता तेरे भक्तों और बन्दों को,

क़त्ल करने से उन मासूमों का,

जिन्होंने तड़पते हुए,

आग में जलने से पहले,

हज़ारों बार रो रो कर,

ज़ार ओ क़तार आंसू बहाये थे,

तुझे पुकारा था,

तुझे बुलाया था,

जो नही रोक तूने,

तू बराबर गुनाह में शामिल,

जो न रोक सका तो फिर,

किस बात का खुदा बनता है?

सच तो यह है,

कि तेरा कोई वजूद नही,

काश कि वो जानते होते,

कि तू तो मर चूका है,

और तेरा जिस्म कहीं

दूर पड़ा किसी सहारा में,

सड़ता हुआ बदबू में सना

पड़ा हुआ है बस,

उसे दफनाने नही देते,

वो कि जिनकी रोटियां,

आती हैं सपने दिखा कर,

तेरे जागने के सपने,

जो कभी पूरे नहीं होंगे,

क्योंकि तू तो कभी,

पैदा ही नही हुआ ,

तुझे तो बस ज़ेहनो में बसाया गया,

लोगों को डराने के लिए,

उन्हें डरा कर के,

भट्टी में खपाने के लिए,

कि वो बस खौफ ए खुदा में,

डरे सहमे से रहकर,

बेचते रहें अपना जिस्म,

पिलाते रहें अपना लहू,

और लहू पर बनते रहें,

महल तेरे क़रीबी बन्दों के,

मीनार तेरे वलियों की मज़ारों के,

बुतक़दे तेरे सनमखानों के,

और उन बुतकदों में पिसती,

कभी कोई अहिल्या,

तो कभी कोई मरियम,

कभी कोई छोटी बच्ची,

और कभी कोई मलाला,

तो कभी पेशावर के नन्हे तलबा,

और चलता रहे कारोबार,

तेरे क़रीबी बन्दों का.....

~इमरान~

सोमवार, 15 दिसंबर 2014

मंज़िल और सफ़र....

ज़िन्दगी एक न एक बार हर किसी को सफ़र का मौक़ा ज़रूर देती है..उसका भी ये पहला मौक़ा था जब वो घर से बाहर कहीं सफर के लिए निकल रहा था,
ऐसा नहीं था की इसके पहले कभी उसने सफर का कोई तजुर्बा हासिल न किया हो,छोटे मोटे नज़दीकी रास्तों का उसे खूब अनुभव था,लेकिन इस बार बात कुछ अलग थी,इस बार का सफर उसकी ज़िन्दगी में बेहद अहमियत रखता था,क्योंकि जिस मंज़िल के हासिल करने के लिए वो ये सफ़र करने जा रहा था वो उसकी ज़िन्दगी में बहुत ऊँचा मक़ाम रखती थी,या यूँ कह लीजिए वो उसकी ज़िन्दगी का मक़सद थी,
रास्ता बेहद तवील होने के चलते इस सफर पर बिना एक साथी के नही निकला जा सकता था,दरअसल काफी अरसे से इस सफर की ख्वाहिश होने के बावजूद भी वो एक अदद हमसफ़र के न होने के चलते ही इब्तिदा करने से घबरा रहा था,
अब जाने को तो उसके आस पास कई ऐसे लोग थे,जिनमे से किसी को भी वो अपने साथ लेकर जा सकता था,लेकिन वो लोग उसके दिल ओ दिमाग के मुताबिक नही थे,उसकी शख्सियत की कसौटी पर खरे नहीं उतरते थे, हालाँकि,उन लोगों में कोई खराबी रही हो ऐसा कुछ न था,सब एक से बढ़ कर एक हसीन खूबसूरत और खूबसीरत लोग थे,लेकिन जिस खूबी की उसे तलाश थी वो भी नही थी उनके पास,
अक्सर ऐसा होता है कि हमारे पास कई बेहतर से बेहतर लोग मौजूद हों,लेकिन फिर भी ज़ेहन के किसी एक कोने पर हम खुद को तन्हा पाते हैं...इसकी वजह शायद उन लोगों का हमारे मन के उस कोने तक न पहुच सकना होता हो,वो कोना जहाँ हम हकीकत में मिला करते हैं या जहाँ हमारी हक़ीक़त मिला करती है,
ज़ेहन के इस कोने का दरबान बड़ा सख्त होता है, ये हर किसी को अंदर आने भी नहीं देता,जैसे तैसे अगर कोई उस दरवाज़े के आस पास पहुच भी गया तो फिर सख्त तलाशी के दौर शुरू होते हैं, फिर तसल्ली न होने पर उसे वहीँ दरवाज़े से वापस भेज दिया जाता है,
बहुत कम लोग हमारी ज़िन्दगी में इस दरवाज़े को पार कर पाते हैं,और एक बार अंदर आ जाने पर बाआसानी बाहर नहीं निकल पाते,
किस्सा मुख़्तसर यह कि हमारी कहानी के इस किरदार को भी ऐसे ही किसी शख्स की तलाश थी जो उसे मिला भी,एक ऐसा शख्स जो सीधे उसकी निगाहों के रस्ते से मन में उतरा तो फिर उतरता चला गया,दरअसल वो मिल तो काफी पहले गया था लेकिन उसे इस बात का अहसास होने में थोडा सा वक़्त लग गया था,
फिर एक दिन वो वक़्त भी आया जब दोनों ने सफ़र की शुरुआत करने का फैसला किया...
वो दोनों बेहद खुश थे और उन्हें अब मन्ज़िल के मिल जाने का पक्का यकीन हो चला था,पूरी तयारी और जोश के साथ एक दूजे का हाथ थामे उन्होंने चलना शुरू कर दिया,एक दुसरे को देखते,हंसते मुस्कुराते से,जब वो उसकी आँखों में गहरे से झांकता तो उसके गालों पर लाली छा जाती...उन्हें ऐसा लगता मानो पूरी दुनिया की ख़ुशी इन चार आँखों के दरम्यान में सिमट आई हो,और इसके सिवा दुनिया में कुछ है ही नहीं....
इसी हालात में अक्सर तो ऐसा होता की दोनों मन्ज़िल के बारे में भूल ही जाते और सफर के पेंचो खम में एक दूसरे के साथ का मदमस्त कर देने वाला अहसास उन्हें मदहोश किये रहता...एक दूसरे में खोये हुए से,थमे हुए,अहसास की उस मंज़िल पर पहुचे हुए जहाँ से कोई वापस नहीं आना चाहता लेकिन कुछ मजबूरियों के चलते वापस आ जाना ही पड़ता है....लेहाज़ा उन्हें भी वापस आना ही पड़ता और फिर दोनों सफर की मंज़िल तय करना शुरू कर देते थे...
एक दूसरे से बातें करते और मंज़िल के बारे में सोचते हुए बकिया ज़िन्दगी और वहां रहने सजाने और बिताने के बारे में घण्टो तक बातें किया करते थे....कभी कभी दोनों में किसी बात को लेकर मीठी बहस भी हो जाती थी जो आखिर में एक राय होकर खत्म भी हो जाती थी...
इसी सफर में एक मौक़ा ऐसा भी आया जब दोनों को अपनी मन्ज़िल सामने नज़र आने लगी...साफ़ शफ्फाक और एकदम आँखों के सामने बस चन्द क़दमो की दूरी पर,वो मंज़िल जिसकी तलाश में उन्होंने इतना लम्बा और खूबसूरत सफर तय किया था,दोनों दुगनी रफ़्तार से मन्ज़िल की तरफ बढ़ने लगे....एक दूजे का हाथ थामे वो उस जानिब बढ़ ही रहे थे की अचानक से उसकी हमसफ़र ने उसको रोक दिया...वो शख्स वहीं ठिठक कर खड़ा हो गया....और सवालियां निगाहें उसके चेहरे पर गड़ा दीं....
क्यों रोकती हो?मन्ज़िल सामने आ गयी है....
हाँ,देखा...
फिर?हमने इतना लम्बा सफर इसीलिए तो तय किया है जाना,इसी मंज़िल को हासिल करने के लिए जो हमारे सामने है...फिर रोकती क्यों हो?
हमसफ़र जवाब देती है-हाँ किया तो सही...लेकिन ज़रा उस सफ़र का भी सोचो...जो हमने एक दूजे के साथ तय किया है...उस सफ़र के अहसासात,एक दूसरे के साथ का लुत्फ़....और सबसे बढ़कर यह जानना कि दो लोगों के साथ और हमसफ़री के हक़ीक़ी मायने क्या होते हैं....मेरा तुमसे सवाल बस इतना है...क्या इस मंज़िल पर पहुच कर भी हम उस अहसास को दोबारा और वैसे ही कभी भी जी पाएंगे?जैसा की हमने इस सफ़र के दौरान जिया है?
उसकी बात जायज़ थी,शख्स एक सोच में पड़ गया,लेकिन हमसफ़र ने आगे बोलना जारी रखा,
ज़रा सोचो न जाना,हम आज इस मन्ज़िल के एकदम पास पहुच गए हैं....थोड़ी देर में हम इसके अंदर होंगे,कुछ आराम करेंगे,थोडा जश्न मनाएंगे,फिर उसके बाद?उसके बाद हमारे पास करने के लिए क्या बचेगा?ये जो इस सफ़र में हमने एक दूसरे को जिया है,एक दूसरे कि तकलीफों में हम साथ रहे हैं और खुशियों के जिन पलों को हमने सांसो में उतारा है अपनी,उन पलों को हम दोबारा पा सकेंगे क्या?
वो शख्स वहीँ पास एक पत्थर पर बैठ कर उसकी बातें ध्यान से सुनने लगा....हमसफ़र उसके क़दमों के पास बैठी और उसके जानू पर अपना सर रख के उसे सफ़र की मीठी यादों और तजुर्बों का ज़िक्र करने लगी.....
यह बड़ी अजीब सी स्थिति थी.....जिस मक़सद के लिए उन्होंने यह सफर अंजाम दिया था वो एकदम सामने होने के बाद उन्हें अपने मक़सद के बजाये वो रास्ता ज़्यादा भा रहा था जिसके ज़रिये वो यहां तक पंहचे थे,

"बेशक रास्ता मंज़िल नहीं हुआ करता,लेकिन मन्ज़िल हमेशा मन्ज़िल हो यह भी तो ज़रूरी नही न,महज़ कुछ पुराने ख्यालात की बिना पर किसी मन्ज़िल को मन्ज़िल और रस्ते को रास्ता क़रार दिया हुआ है हमने....लेकिन क्या यह ज़रूरी है कि हज़ारों साल पहले लिखी गयी जगह आज भी मन्ज़िल ही हो या फिर रास्ता वही रास्ता हो....."
हमसफ़र की बातें उसकद कानो के ज़रिये ज़ेहन की नसों में तैरती जा रही थीं....उसके नज़रिये में कुछ इंक़लाबी सा बदलाव आ रहा था...उसे सोचने पर मजबूर होना पड़ गया,जिसे वो अब तक मन्ज़िल समझ रहा था और उसकी याद में पागलों की तरग दौड़ लगाता फिर रहा था वो आज अगर पा भी ली तो क्या?
यह सफर अगर खत्म हो गया तो फिर आगे क्या होगा?जीवन का रोमांच और मक़सद फिर वो किसमें तलाश करेगा?कहाँ ढूंढेगा ज़िन्दगी को और कैसे?इन्ही ख्यालों की उधेड़बुन में दोनों देर तक खोये रहते हैं,एक बारगी कुछ फैसलाकुन अंदाज़ में सर झटके जाते हैं,मुस्कुराया जाता है...उदास हुआ जाता है और फिर बातें शुरू हो जाती हैं.....फिर एक बारगी अचानक उसके होंटो पर एक शांत सी मुस्कुराहट खेलने लगी है,वो अपनी हमसफ़र की आँखों में देखता है...नज़रें मिलते ही उसके होंटो पर भी वही मुस्कान तैर जाती है...मानो वो कह रही हो,मैं समझ गयी तुम्हारे मन की बात....यह बात बहुत कम लोग महसूस कर पाते हैं लेकिन सफर में एक मन्ज़िल ऐसी भी आती है जबकि लफ्ज़ कम पड़ जाते हैं या यूँ कहें की लफ़्ज़ों की ज़रूरत नहीं रह जाती है...ऑंखें ही सब हाल बयान कर दिया करती हैं....बड़ा खूबसूरत होता है यह अहसास जिसे कि आज तक लफ़्ज़ों में बयान नहीं किया जा सका है, उनको बड़ा अच्छा लगता था हर बा जब ऐसा होता था,दोनों अपनी जगह से उठते हैं और एक दूजे का हाथ थामे एकबारगी होंटो पर होंट रखे एक दूसरे को कुछ देर तक चूमते रहते हैं,और मन्ज़िल के सामने दूसरी ओर को जाते हुए एक बेहद दिलकश लेकिन सुनसान और अंतहीन रास्ते की जानिब बढ़ जाते हैं....इस बिना किसी आने वाली मंज़िल के तय किये...मानो दोनों के दिल में यह सच बैठ गया हो...की यही सफर ही तो वो मंज़िल है...जिसकी उन्हें तलाश थी.....इसे खत्म नही होने देना है कभी.....वरना इसके साथ ही एक दिन वो भी खत्म हो जायेंगे......
कहीं पीछे छूट गयी उनकी वो पुरानी मन्ज़िल, जो दरअसल कभी उनकी मन्ज़िल थी ही नहीं......उनको जाते हुए देखती है....मानो उन दोनों से कह रही हो कि....मुबारक हो तुम्हें! आज तुमने एक दूजे को खुद से जुदा होने से बचा लिया है,और अपने रिश्ते को ज़िंदा ओ जावेद कर दिया है......आखिरी मर्तबा पीछे मुड़कर देखने के बाद फिर एक दूसरे में खोये दोनों अपने अंतहीन रास्ते पर आगे बढ़ जाते हैं......

~इमरान~

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

मंदिर वहीँ बनायेंगे

सुन ले ओ भगवन,
ओ सबसे बलवान,
वही पुरानी तान,
फिर अयोध्या आएंगे
मन्दिर वहीँ बनाएंगे,
तारीख़ नहीं बताएँगे,
आंदोलन करवाएंगे,
अदालतें बिठवायेंगे,
हम दंगे करवाएंगे,
चुनाव जीते जायेंगे,
चन्दा जमा करवाएंगे,
महल अपने बनवायेंगे,
टाइल्स विदेशी लगवाएंगे,
खूब शिलाएं लाएंगे,
उनसे अपने मकां बनवाएंगे,
तुम चिंतित बिलकुल मत होना,
तम्बू में आराम से सोना,
टाट का ले लेना बिछौना,
बिन बिजली अँधेरे में जीना,
दूध नहीं है पानी पीना,
हम तो संसद बसाएंगे,
मंत्री बने बनाएंगे,
दिल्ली में छा जाएंगे,
काला धन न लाएंगे,
मुर्ख जनता को बनाएंगे,
तुम शांति से प्रतीक्षा करो,
मायूसी पे न कान धरो,
ये काम तो निपटा लें पहले,
तिजोरियां खाली हो गयीं फिर,
इनको तो भर लें हम पहले,
बाद में तेरी सोचेंगे,
तब तक ये आश्वासन ले लो,
उम्मीद का एक वादा ले लो,
अच्छे दिन की आसा ले लो,
मन में तुम भी सपना रख लो,
दिल से कहते हैं ये बात
फिर एक बार फिर एक बार,
सुन लो मेरी जान लला,
जनमन के भगवान लला
ओ रामलला हम आएंगे,
मंदिर वहीँ बनाएंगे....

~इमरान~

रविवार, 30 नवंबर 2014

रिक्शे वाले, लाल सलाम

का भईया रिक्शे वाले,लाल सलाम!
जी भईया?
लाल सलाम का होअत है जानित हौ?
के का?
अरे लाल सलाम जनित हौ की नाय?
हाँ जानित काहे न हैं!!
अच्छा! का होत है बताओ?
ऊ वइसने होत है जय रामजी के जईसे!
केके जईसे?
अरे वही भाय,जय रामजी की,आदाब,सतसिरिकाल की जईसने टैप होअत है.....
बस बस!तब ठीक बा,चला अब......

शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

मोमबत्तियां और बल्ब

राजस्थान मेघदूत में प्रकाशित (चित्र संलग्न)


मोमबत्ती और बल्ब की भी एक अजब कहानी है,बड़ा अजीब सा रिश्ता है , इतिहास भरा पड़ा है इनके आपसी रिश्ते की कहानियों से, जी हाँ मोमबत्ती और बल्ब का इतिहास, जब जब मोमबत्तियों की बस्ती में कोई बल्ब आया उसे परेशानियों का सामना करना पड़ा है,लेकिन बल्ब ने इन परेशानियों से हार मान कर रौशनी देना नहीं छोड़ा,ऐसे ही एक बल्ब की क़ुरबानी की कहानी आज आपको सुनाता हूँ ,
बहुत समय पहले की बात है,मोमबत्तियों के एक देश में कहीं से एक बल्ब रहने आया,एक शहर में छोटी सी खोली बना कर रहने लगा, शहर के और आस पास की मोमबत्तियां उसे बड़ी अजीब नज़रों से देखतीं,उसके बारे में तरह तरह की कहानियां बनतीं, जब बल्ब बाहर निकलता तो कुछ आवारा किस्म की मोमबत्तियां उसपे फब्तियां कसतीं,उसे ताने दिए जाते, छोटे छोटे बच्चे और जवान मोमबत्तियां अक्सर बल्ब की तरफ आकर्षित हो जाते थे,उन्हें बल्ब की तेज़ चमक बड़ी अच्छी लगती थी, वो भी अपने वजूद में उस बल्ब की रौशनी पाना चाहते थे ,इस बात से शहर की चालाक सयानी राजनैतिक मोमबत्तियां खतरा महसूस करती थीं, की अगर सारी जवान मोमबत्तियां बल्ब की तरफ आकर्षित होकर उसकी तरह की हो गयीं तो संसार से मोम बत्तियों का प्रभुत्व ख़त्म हो जायेगा,
संसार को अँधेरे में रौशनी देने का उनका गौरवशाली इतिहास किसी बल्ब के क़दमों की गर्द के तले दब कर रह जायेगा,लिहाज़ा मोमबत्तियों के अस्तित्व के लिए बल्ब का खत्म होना बेहद ज़रूरी है, इस आशय को अमली जामा पहनाने के लिए मोमबत्तियों ने एक दिन एक ख़ास जगह पर कुछ ख़ास बुद्धिजीवी मोमबत्तियों की बैठक बुलाई,
उस बैठक मे बस्ती की सभी बड़ी बड़ी मोमबत्तियां शामिल हुई थीं,सभा में व्यापारी संघ की मोमबत्तियां सबसे आगे बैठीं थीं, उनके पीछे बुद्धिजीवी, सामाजिक मोमबत्ती ,डॉक्टर वकील मोमबत्तियां,पत्रकार मोमबत्तियां और धर्मगुरु मोमबत्तियां इत्यादि मौजूद थीं,
कुछ दो चार युवा मोमबत्तियां भी थीं जो युवक मोमबत्ती संघों या संगठनों की नेता मालूम होती थीं, इनका काम होता था बड़ी मोमबत्तियों के कार्यक्रमों में युवा मोमबत्तियों की भीड़ इकट्ठी करना,इस लिहाज़ से यह तत्काल मोमबत्ती सियासत में काफी अहम् स्थान रखते थे, इन्हें सभी बड़ी और "बुज़ुर्ग" मोमबत्तियों का खुला वरदहस्त प्राप्त था,बड़ों के दीगर जरायम में इनका हिस्सा भी तय शुदा होता था... बहरहाल किसी तरह से यह मीटिंग शुरू हुई, एक सबसे बूढी मोमबत्ती को "लोकतान्त्रिक सर्वसम्मति" से महान मोमबत्ती सभा का अध्यक्ष मनोनीत किया गया,
अध्यक्ष की अनुमति से एक एक कर के वक्ताओं ने भाषण देना शुरू किया,
पहला वक्ता बोला -"दोस्तों,हम मोमबत्तियों का एक गौरवशाली इतिहास रहा है, सालों से हमारे पूर्वज इस संसार को रौशनी देते चले आ रहे हैं,आज हमारे बीच कोई अजीब सा बल्ब नाम का प्राणी आ गया है,यह बल्ब किसी पागल सनकी इंसान का इजाद किया हुआ एक हथियार है जो खुद को वैज्ञानिक कहता है और हमारी रूढ़ियों और परम्पराओं को पाखण्ड और दिखावा कहता है, हमारे गौरवशाली इतिहास को दरकिनार करते हुए आज वो हमारे अस्तित्व को ही समाप्त कर देना चाहता है"
इस भाषण की समाप्ति पर खूब तालियाँ बजीं, फिर अध्यक्ष की अनुमति से एक दूसरी बूढी मोमबत्ती ने बोलना शुरू किया, -"प्यारे साथियों ! आप अच्छी तरह से जानते हैं की विदेशी विधर्मी ताक़तें हमेशा से हम मोमबत्तियों के गौरवशाली उज्जवल इतिहास से जलती और कुढती रही हैं, उनसे हमारी तरक्की और खुशहाली बर्दाश्त नहीं होती है, लिहाज़ा उन्ही पश्चिमी देशों ने आज साजिशन हमारे बीच इस बल्ब को भेज दिया है ताकि हमारी नौजवान पीढियां इस बल्ब के चक्कर में आकर अपना वजूद अपना रौशन माज़ी भुला बैठें और इसके पीछे इस जैसे हो जाएँ,आज हम सबको इस साजिश का मुकाबला करने की ज़रुरत है वरना हमारा अस्तित्व समाप्त हो जायेगा और हमारी आने वाली नस्लें मोमबत्ती होकर रह जाएँगी"
हॉल में ज़ोरदार तालियाँ बजीं, सारी मोमबत्तियों ने एक सुर में अपनी लौ फडका कर इस बात का अनुमोदन किया,
इसके बाद कुछेक वक्ताओं ने और अपनी राय रखी, नौजवान संघ के एक छात्रनेता ने खड़े होकर सभी वरिष्ठ मोमबत्तियों को विश्वास दिलाया की युवाओं को बल्ब के प्रभाव में आकर भटकने से रोकना उसकी ज़िम्मेदारी है और वो अपने जिस्म के मोम का आखिरी कतरा तक बहा कर इस कर्तव्य का पालन करेगा,
व्यापारी संघ की एक नेता मोमबत्ती ने कहा की वो बल्ब की सम्भावित सप्लाई रोकने के लिए बाज़ार को नयी और सजीली आकर्षक भड़काऊ मोमबत्तियों से भर देगा ताकि लोग बल्ब की ज़रूरत ही न महसूस करें,
शराब बनाने का काम  देखने वाली एक मोमबत्ती ने कहा की वोह घर में मोमबत्ती रखने वाले लोगों को कम कीमत पर अच्छी शराब देगा और बल्ब के प्रभाव वाले लोगों को महंगी देगा,
पत्रकार और बुद्धिजीवी मोमबत्तियों ने बल्ब के खतरों और साजिश के खिलाफ लम्बे लम्बे लेख,ख़बरें और किताबें लिखने का आश्वासन दिया,
एक लम्बी दाढ़ी और चोगे वाली मोमबत्ती ने कहा की वोह बल्ब के विरुद्ध फतवा जारी करके उसे इस्तेमाल करने वालों को धर्म और बिरादरी से ख़ारिज करवा देगी, नज़दीक बैठी कुछ तिलकधारी , क्रॉसधारक,पगड़ी वाली और वैसी ही तीन चार अजीब अजीब वेशधारी मोमबत्तियों ने भी दाढ़ी चोगे वाली मोमबत्ती के प्रस्ताव का समर्थन किया और खुद भी वैसा ही करने का भरोसा दिलाया,
सभा अपने तर्ज़ पर चल ही रही थी कि इसी बीच एक मुखबिर मोमबत्ती बीच सभा में दौड़ती हांफती आई और उपस्थित लोगों से कहा की बल्ब अब अपनी हद से आगे बढ़ गया है, उसने अपने पड़ोस में रहने वाली चार मोमबत्तियों को भी बल्ब बना डाला है और अब वो चारों उसके साथ मिल कर चौक में बल्ब के साथ मोमबत्ती संस्कृति के खिलाफ भाषण दे रहे हैं
यह खबर सुनकर उपस्थित मोमबत्तियों के समुदाय में आक्रोश की लहर दौड़ गयी, सब एक सुर से मार दो-काट दो की सदायें बुलंद करने लगे,मंच पर बैठी नेता मोमबत्तियों ने जनाक्रोश को भांपते हुए तुरंत अपना सुर "बहिष्कार से संहार" की तरफ मोड़ दिया,
अध्यक्ष का इशारा पाकर एक अत्यंत वरिष्ठ मोमबत्ती ने माइक सम्हालते हुए कहा -"प्यारे भाइयों,अब बात बहुत बढ़ चुकी है,बल्ब ने हमारी सारी आशंकाओं को सही साबित करते हुए अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया है,यदि अभी के अभी इस बल्ब को सबक नहीं सिखाया गया तो यह हमको और हमारे अस्तित्व को हमारी संस्कृति सहित ज़मीनदोज़ कर डालेगा"
उधर सारी दाढ़ी चोगे तिलक क्रॉस पगड़ी वाली मोमबत्तियां चीख चीख के बुलंद आवाज़ में बल्ब के विरुद्ध भाषण देने लगीं, कुछ गायकों ने वीर रस की कविताएँ गानी प्रारंभ कर दीं...
भीड़ पहले से ही आक्रोश में नारे लगा रही थी,इतने में इसी भीड़ में से कुछ युवा मोमबत्तियों ने तलवारें लहरानी शुरू कर दीं, और तेज़ नारेबाजियों के साथ चौक की तरद दौड़ लगा दी, भीड़ भी उनके साथ हो ली,
चौक पर बल्ब अपने उन चार नए नए बल्ब बने साथियों के साथ मौजूद था और कुछ एक मोमबत्तियों को लेकर बैठा कुछ समझा रहा था-"आप लोग भी इनकी तरह मोमबत्ती से बल्ब बन जाओ, इससे आपकी प्रकाश देने की क्षमता बढ़ेगी,आप अधिक आयु जियोगे और बेहतर जीवन मिलेगा"
इतने में हजारों मोमबत्तियों की हाहाकारी भीड़ ने उन पर हमला कर दिया,भीड़ आती देख श्रोता मोमबत्तियां तेज़ी से गलियों में भाग कर कहीं गायब हो गयीं,चार नई नयी बल्ब बनी एक्स मोमबत्तियों को भीड़ ने वहीँ मौत के घाट उतार दिया, बल्ब को पकड़ कर मुखिया मोमबत्ती के सामने पेश किया गया,मुखिया ने उसे जेल भेजने का आदेश दे दिया , कुछेक नौजवान मोमबत्तियों ने उसे भी वहीँ मार डालना चाह लेकिन मुखिया मोमबत्ती ने "न्यायिक प्रक्रिया" का हवाला देते हुए उसे अदालत के समक्ष पेश करने को कहा,
अदालत में वो दाढ़ी,चोगे,क्रॉस,पगड़ी और तिलक वाली सारी मोमबत्तियां जज की कुर्सी पर बैठीं थीं, एक हफ्ते तक मुक़दमा चला,सरे काजियों ने एक सुर में कहा की हमारे महान मोमबत्ती ग्रंथों के नियमों के मुताबिक बल्ब को मृत्युदंड मिलना चाहिए क्यूंकि उसने ने एक नयी व्यवस्था कायम करने की कोशिश की है जो न केवल देश और धर्म के विरुद्ध है बल्कि मोमबत्तियों के महान इश्वर "मशाल" के खिलाफ विद्रोह भी है,
इसकी सबसे छोटी सजा फांसी ही है,हालाँकि अपराधी के दुस्साहस को देखते हुए यह सज़ा कम है लेकिन हम इससे अधिक सज़ा दे भी नहीं सकते,
बल्ब ने बड़ी अदालत में गुहार लगाईं,लेकिन वहां भी उसकी सज़ा को बरकरार रखा गया...अंत में फैसला यही हुआ की बल्ब को बीच चौराहे पर जनमानस के सामने फांसी दे दी जाएगी....बल्ब यह सुन कर उदास नहीं हुआ बल्कि मोमबत्तियों की मूर्खता पर हँसता रहा...
फिर एक अख़बारों में बड़ी बड़ी हेडलाइंस में खबर छपी-"छह माह की न्यायिक प्रक्रिया के बाद राजद्रोही बल्ब को बीच चौराहे पर फांसी"
सम्पादकीय पन्नों पर बल्ब को मिलने वाली न्यायिक सुविधाओं,बढ़िया वकीलों और जेल में मिलने वाले अच्छे खाने का ज़िक्र करते हुए मोमबत्ती राज्य की दरियादिली और न्यायप्रियता की दिल खोल कर तारीफ की गयी, सालों तक लोग अपने बच्चों को बल्ब के अपराध के किस्से सुनाते रहे,स्कूलों की किताबों में बल्ब को खलनायक लिखा गया, बुद्धिजीवियों/पत्रकारों की कलम बल्ब को राजद्रोही और मुजरिम कहती रहीं....

~इमरान~

सोमवार, 3 नवंबर 2014

पीर की पैदाइश

दिलावर खान की खानदानी गडावर (कब्रिस्तान) पर आये दिन गाँव के जुलाहा/अहीर बिरादरी के लोग अपनी भैंस ,बकरी चरने के लिए छोड़ देते तो कभी खूँटी लगा कर बाँधने भी लगे थे,दिलावर खान ज़मींदार खानदान से थे,ज़मींदारी भले से ख़त्म हो गयी थी लेकिन वो खानदानी रुआब और अकड बहरहाल उनमे बरक़रार थी,
एक बार की बात है किसी बतकही में हुई बहस पर बगल की जुलाहा पट्टी के 25 साला लौंडे जावेद ने दिलावर खान को गरेबान पकड़ कर ऐसा झिंझोड़ा था की सारे अस्थि पंजर गड्ड मड्ड हो गए थे,संख्या में अधिक बिरादरी वाले जावेद का खान साहब कर तो कुछ ना सके लिहाज़ा बड़े बुजुर्गों की मौजूदगी में जावेद को छोटा होने का ताना देकर अदब व लिहाज़ की दुहाई में माफ़ी मंगवा ली थी,
उस दिन के बाद से अपने रुआब और अकड को दिलावर खान अपनी जेब में छुपा कर रखते थे और बहुत कम मौक़ा महल देखकर ही इस्तमाल करते थे,
इसी जुलाहा पट्टी का एक और लड़का रिजवान इलाके की छोटी मोटी नेतागिरी से उठकर एक दिन गाँव का प्रधान बन बैठा था,परले दर्जे के नशेडी रिजवान के ऊपर इलाकाई विधायक का हाथ था,उसकी नज़र खान साहब की गडावर वाली ज़मीन पर थी,रिजवान का घर पास ही था,वो गडावर के सामने वाली ज़मीन अगर उसके हाते में मिल जाती तो अच्छा ख़ासा हाता तैयार हो जाता, एक छुट्टी के दिन मौक़ा जान रिजवान ने ज़मीन कब्जाने की शुरुआत कर ही दी,
धडाधड दिवार उठना शुरू हो गयी,दीवार की लाइन में एक पुरानी पक्की कब्र आती थी, रिजवान ने उसे समतल करवाना शुरू किया ही था कि इतनी देर में दिलावर खान कुछ दे दिला कर और कुछ ऊपर से "एप्रोच" लगवा कर पुलिस बुला ली और काम रुकवा दिया....
उस दिन रिजवान का मूड बहुत उखडा था,विधायक से उसका फोन पर संपर्क नहीं हो पा रहा था,जब तक रिजवान कुछ जुगाड़ पानी करता शाम हो गयी थी,सो मामले को अगले दिन पर टाल वो घर लौट आया,एक तो रात बिना दारु पिए उसे नींद नही आती थी दुसरे कभी कभी वो नशे की गोलियां ले लिया करता था,,
उस रात उसने दिन वाली खिसियाहट मिटाने के लिए दोनों नशे एक साथ किए,यानी गोली और दारु दोनों, शराब के साथ मिलकर नशे की गोली ने कुछ ऐसा असर दिखाया की रिजवान का दिल उसे झेल न सका और उसे एक छोटा हार्ट अटैक आया, घर वाले उसे लेकर अस्पताल भागे जो घर से एक घंटे की दूरी पर था...
रिजवान को यह पहला दिल का दौरा था ,वो बच गया,बात आई गयी हो जाती लेकिन ये छोटी सी घटना दिलावर खान को उसके खानदानी पुरखों की क़ब्रों को समतल होने से बचाने और अपनी गडावर घेरने का उपाय दे गयी,दिलावर खान ने जल्दी से अपने कुछ ज़रखरीद चेलों को भेज उस आधी टूटी कब्र पर एक फूलों की बड़ी सी चादर चढवा दी और आस पास कुछ धुप अगरबत्तियां जलवा दीं,कुछ बूढ़े सफ़ेद दाढ़ी वाले और कुछ "साफ छवि" वाले लोगों से मसलेहत करके दिलावर खान ने पूरे गाँव में ये अफवाह उड़ा दी के यह उसके दादा के किसी नानिहाली रिश्तेदार की कब्र है जो कोई पहुचे हुए सय्यद बाबा थे और अपने आखिरी वक़्त में उसके दादा के पास मिलने आये थे और कुछ दिन के कयाम के बाद यहीं दौरान ए एह्तेकाफ इंतकाल फरमा गए थे....
रिजवान को अल्लाह ने उनकी कब्र की बेहुरमती की सजा दी और उसे दिल का दौर पड़ गया,बस फिर क्या था, अफवाह ने उसी रफ़्तार से आग पकड़ी जैसे आम तौर पर हिन्दुस्तान में पकड़ा करती है और वहां रातों रात "श्रद्धालुओं" की भीड़ लगने लगी.....
कब्र से गाँव वालों की धार्मिक भावनाएं जुड़ जाने और कुछ अपनी बीमारी के चलते रिजवान इस मामले में अब कुछ न कर सका और इसी मजार के बहाने दिलावर खान ने चाँद की अगली छब्बीस तारीख को सय्यद बाबा के पहले सालाना उर्स की घोषणा करते हुए अपनी खानदानी गडावर को सय्यद बाबा के नाम "वक्फ अलल औलाद" करने का फैसला कर दिया और खुद नए नवेले पैदा हुए पीर के ताज़ा बने मज़ार के मुतवल्ली बन बैठे....
इस घटना को घटे आज बीस साल हो गए,हर साल धूम धाम से बाबा का उर्स मनाया जाता है,दिलावर मियां के पोते आज उस मज़ार के मुतवल्ली (प्रशासक) हैं....

~इमरान~

गुरुवार, 30 अक्टूबर 2014

एक किस्सा जोश मलिहाबादी का

शब्बीर हसन खां उर्फ़ जोश मलिहाबादी लखनऊ से कुछ दूरी पर स्थित मलिहाबाद नामी जगह पैदा हुए थे,जोश अपने समय के एक बेहतरीन शायर और सामाजिक विचारक थे,
एक बार जोश ने कर्बला के शहीदों के ऊपर एक मर्सिया लिखा,इस मर्सिये को अवाम में काफी मकबूलियत हासिल हुई,लेकिन जोश ने अपने इस कलाम में मौलवियों और कुछ धर्म के व्यापारियों पर तीखे कटाक्ष भी कसे थे,जिससे धूर्त मौलवियों का एक वर्ग उनसे काफी नाराज़ हो गया और उनका तगड़ा विरोध करना शुरू कर दिया,इसके कारण जोश को एक दो जगह वो मर्सिया पढ़ने से रोका गया,यहाँ तक की कुछ लोगों ने तो उन्हें अपने घरों में बुलाना तक तर्क कर दिया,जोश इससे ज़रा भी विचलित नहीं हुए और अपने कलाम पर अडिग रहे,
एक बार की बात है लखनऊ के एक नामी घराने में साहिब ए खाना ने जोश को वही मर्सिया पढने के लिए आमंत्रित किया,जब ये खबर विरोधी तबके मिली तो उन्हें मिर्चें लग गयीं लेकिन वो कर कुछ न सके,इसी तरह मामला चलता रहा की एक दिन बिल आखिर विरोधी तबके के लोगों में से एक गिरोह जोश की शिकायत लेकर तत्कालीन सर्वोच्च शिया धर्मगुरु अयातुल्लाह नासिर हुसैन अबाक़ती की खिदमत में हाज़िर हुआ और जोश के खिलाफ मौलाना साहब के कान जितने भरे जा सकते थे भरे गए,
जब खूब नमक मिर्च लगा कर ये गिरोह जोश की शिकायत कर चुका तो मौलाना ने अपने एक खादिम को बुलाया और उससे कहा की जाकर जोश से कहो अपना वो मर्सिया लेकर फ़ौरन मेरे पास आयें,
खादिम जब ये खबर लेकर जोश के पास पंहुचा तो वो नहा धो कर अपने घर से बाहर कहीं निकल रहे थे,खादिम ने कहा की जल्द अपना वो मर्सिया लेकर चलिए आपको जनाब ने फ़ौरन याद किया है ,जोश घबराये और अन्दर से जाकर अपने मर्सिये के कागज़ लिए और खादिम के साथ चल पड़े,
वहां जाकर जब उन लोगों को मौजूद देखा तो जोश को सारा मामला समझते देर नही लगी, मौलाना साहब ने जोश को बैठने को कहा,इतनी देर में खादिम चाय नाश्ता वगैरह ले आया था,जब सब फारिग हो चुके तो मौलाना ने कहा,-
"मैंने सुना है की तुम्हारा वो मर्सिया अवाम में बड़ा मकबूलियत हासिल कर रहा है"
जोश खामोश रहे,
मौलाना ने आगे अपनी नमाज़ की चौकी की तरफ इशारा करके कहा-
"जाओ उस चौकी पर जा के बैठ जाओ और इमाम का वो मर्सिया कह सुनाओ"
जोश पहले तो हिचकिचाए लेकिन फिर मौलाना के इसरार पर जा के बैठ गए और मर्सिया सुनाने लगे,
उधर शिकायती तबके का मुंह उतर गया
लेकिन मौलाना थे कि पूरे वक़्त नम आँखे लिए गौर से मर्सिया सुनते रहे...
जब मर्सिया ख़त्म हुआ तो मौलाना ने जोश को अपने पास बुलाकर उनकी खूब तारीफ की और पीठ थपथपा कर उन्हें विदा कर दिया,
जोश के जाने के बाद मौलाना ने उन शिकायती लोगों की तरफ रुख किया,उनमे से एक आदमी ने उठ कर मौलाना से कहा,
-" "सरकार,वो (जोश) तो शराब भी पीते हैं,एक शराबी को आपने अपनी चौकी पर बैठा दिया?"

मौलाना ज़रा असहज हुए,फिर बुलंद अवाज में कुरान की वो आयत पढ़ी जिसका अनुवाद होता है -,

"हरगिज़ इबादत के करीब न जाना जबकि तुम नशे की हालत में हो"

इस आयत को पढने के बाद मौलाना ने समझाया -

"देखो भाई उसने मर्सिया तो बहुत उम्दा कहा है,और इबादत के करीब जाने से तो तब मना किया गया है जब इंसान नशे में हो,बेशक शराब एक बुरी आदत है लेकिन इसका मतलब ये थोड़ी हुआ की शराब पीने या कोई भी गलत काम करने वाले से उसकी इबादत और मज़हबी कामों को अंजाम देने का हक उससे छीन लिया जाये,कुरान में कहीं भी यह तो नही लिखा की शराबी या गुनाहगार को कभी इबादत ही न करने दी जाये!"

जोश के मर्सिये की तारीफ और यह बात सुनने के बाद शिकायती गिरोह कायल होकर खिसियानी हंसी हँसता हुआ मौलाना की दस्तबोसी कर के रुखसत हो लिया..

शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2014

दो रवायतें

लखनऊ की एक पॉश कॉलोनी (संभवतः गोमतीनगर या चंद्रलोक इंदिरानगर,मुझे स्पष्ट याद नहीं,) का एक दृश्य, कॉलोनी में एक घर के सामने खड़ी कार का दरवाज़ा खुला देख एक लड़का कार के नज़दीक आता है, थोड़ी देर तक सोचने के बाद लड़का उस घर के दरवाज़े पर लगी घंटी बजाता है जिसके सामने कार खड़ी होती है,घंटी की आवाज़ सुन के अन्दर से एक तीस पैंतीस साला आदमी बाजर निकलता है और लड़के से पूछता है-
"जी कौन साहब"?
"मैं आपके सामने वाले घर में रहता हूँ,मेरा नाम राहुल है,आपकी कार का लॉक खुला रह गया है तो मैंने सोचा बता दूँ"
"ओह्ह! शुक्रिया, मैं भूल गया होऊंगा,अभी लॉक करता हूँ,

दूसरा दृश्य-
आजमगढ़ से सटे एक गाँव की तस्वीर ,एक लड़का लगभग दस/ग्यारह बजे रात को दूकान बंद कर के घर वापस जा रहा है,घर से कुछ दूर पहले एक बाइक खड़ी देखता है,चूंकि वो गली इतनी  पतली है की अपनी गाडी निकलने के लिए लड़के को उतर कर पहले से खड़ी मोटरसाइकिल को उतर कर किनारे करना पड़ता है, बाइक का हैंडल खुला देख लड़का वापस नहीं जाता,वहीँ से एक फोन मिलाता है,
काफी देर घंटी होते रहने पर कोई फोन नहीं उठाता तो लड़का खुद उस बाइक को खीचते हुए थोडा आगे एक पास के ही मकान तक ले जाता है,और बाहरी गेट खोल कर बेधड़क अन्दर घुसता जाता है, बाइक गेट के अन्दर खड़ी करके जोर जोर से आवाज़ लगाना शुरू करता है,सुषमाची !सुषमाची (सुषमा चाची जो जल्दी और जोर से चिल्लाने के कारण सुषमाची हो गयीं थीं) , बहरहाल आवाज़ सुनकर अन्दर से एक अधेड़ उम्र की महिला ऊपर ही छज्जे पर आती हैं-
"का हसन्ने,का हुआ?
"अरे असोकचा (अशोक चचा) आपन बाइकिया बाहरवें खड़ी करके भूल गए रहें,हम अन्दर लगा दिया है बताये दिओ"
" अच्छा बता देबे ऊँ अभी तो सोए हैं,,कैसा आज तू बड़ी देर बाद लौटेओ दुकनिया से"?
"हाँ उ आज काम जादा रहा न,अब चलत हैं हम,"
लड़का गेट वापस बंद करके बाहर आता है और अपनी बाइक उठा कर वापस अपने रस्ते चल देता है,

यह दो दृश्य कोई कोरी कल्पना नही बल्कि मेरी आँखों देखे दो दृश्य हैं,एक तेज़ी से मेट्रो शहर में परिवर्तित होते कभी तहजीब के गढ़ रहे लखनऊ के,जहाँ पैदाइश से लेकर बारहवीं कक्षा तक की पढ़ाई का मेरा जीवन बीता,और दूसरा मेरी बुआ के ससुराल जपटापुर के थोडा आगे आज़मगढ़ के नज़दीक पड़ने वाले किसी एक गाँव का दृश्य है, इन दो दृश्यों में दो अलग अलग भारत दीखते हैं जिन्हें वोह शख्स सबसे बेहतर समझ सकता है जिसने इन दोनों रूपों को नज़दीक से सिर्फ देखा नहीं जिया भी हो,एक तरफ अपने घर के सामने रहने वाले राहुल से "जी कौन साहब" पूछता एक पॉश इलाके का नागरिक है और दूसरी तरफ कई गलियों दूर रहने वाले अशोक चचा की बाइक का लॉक खुला देख उसे पहचान जानने वाला और खीच कर असोकचा के घर तक पहुचाने वाला हसन्ने है ,भले से इन गांवो में आपसी पट्टीदारी की कितनी ही लड़ाई हो,लेकिन वक़्त ज़रूरत पर काम भी सब एक दुसरे के आते हैं और खूब आते हैं,मस्त होता है गांव,एकदम लकड़ी के चूल्हे से उतरी ताज़ी ताज़ी रोटी की तरह :)

किसी शायर का एक शेर याद आया-,

"तुम्हारे शहर में मय्यत को सब कान्धा नहीं देते,
हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिल के उठाते हैं"

रविवार, 21 सितंबर 2014

हालात ए हाज़िरा-पार्ट 1

रूहानी इलाज करवाइए,चौबीस घंटो में शर्तिया इलाज,नौकरी व्यापर प्रेम वशीकरण से लेकर सौतन से मुक्ति तक,सब इलाज हैं बाबा के पास,बाबा के पास जिनों/परियों को वश में करने की कला भी है, कितने जिन बाबा की ऊँगली के इशारों पर नाचते हैं...दूर दूर से बाबा के पास भक्त आते हैं,हजारों लोगों को फायदा हुआ है
बाबा के मुंह से बात निकलते ही पूरी हो जाती है, बाबा कैंसर,पथरी,नजला खांसी बुखार,अंग प्रत्यारोपण जैसे मसलों पर अपना इल्म इस्तेमाल नहीं करते,
अभी कुछ ही दिनो पहले की बात है एक छोटे लड़का कार की चपेट में आकर अपनी एक टांग गँवा बैठा, बाबा चाहते तो किसी जिन या परी से कहकर उसके एक वैसे ही दूसरी टांग पैदा कर देते,लेकिन नहीं की,
पूरी दुनिया एड्स, कैंसर, इबोला, स्वाइन फ्लू जैसी बीमारियों से जूझ रही है, बाबा लोग इन बीमारियों को नहीं देखते....आखिर मजबूरन उस बच्चे को नकली पैर लगवाना पड़ा,बाबा अगर चाहें तो सब कर सकते हैं लेकिन सब अगर बाबा ही कर देंगे तो इन्सान काहिल न हो जायगा? बाबा को इंसानियत की फ़िक्र सबसे ज्यादा है,
कुछ अरसा पहले मेरे एक परिचित को खतरनाक वाला पीलिया हो गया था, एक झाड फूँक करने वाले बाबा आते और रोज़ झाड फूंक कर के चले जाते,बाबा ने उसको एक गंडा भी बाँध रखा था,रोज़ गंडे की एक गिरह खुलती जाती और गंडा लम्बा होता जाता था,बाबा का कहना था की जैसे जैसे गंडे की लम्बाई बढती जाएगी वैसे वैसे मर्ज़ का जोर कम होता रहेगा,
लेकिन ब्लड टेस्ट की रिपोर्ट कुछ और कहती ,उसका मर्ज़ जोर पकड़ता जा रहा था, मजबूर होके बनारस के एक डॉक्टर के पास जाना पड़ा,
डॉक्टर रिपोर्ट देखते ही आग बबूला हो गया,मज़हब का दुश्मन नास्तिक कहीं का, ये डॉक्टर लोग चाहते ही नहीं की मुल्क में एक रूहानी माहौल बने,बाबा को भला बुरा कहने लगा, मुझे बड़ा गुस्सा आया, आस्था पर चोट लगी, आस्था बड़ी संवेदनशील होती है, जरा में चोटिल हो जाती है , छुई मुई की पत्तियों की तरह,
मर्ज़ का जोर ना होता और दोस्त की जान का सवाल ना होता तो बाबा को बुरा कहने वाले इस मलऊन डॉक्टर की कायदे से ठुकाई करता ताकि वो इज्ज़त करना सीख सके,इज्ज़त करना सिखाने के लिए ठुकाई सबस सशक्त साधन है,
हमारी आस्था कितनी ही अतार्किक क्यों न हो आपको उसकी इज्ज़त ज़रूर करनी होगी, ना की तो आगे आपकी ज़िम्मेदारी,
मार पीट, बहिष्कार उत्पीडन जैसे खौफ अच्छों अच्छों को इज्ज़त करना सिखा देते हैं,
गांव में कई लौंडे हैं जो बाहर पढने के लिए इनिवर्सिटी जाते हैं और वापस आते हैं मन भर का घमंड साथ में लेकर , अपना एक गोल बना लेंगे ,सब इनिवर्सिटी वाले, साथ उठेंगे साथ बैठेंगे,पता नहीं क्या क्या गपियाते रहते हैं,खैर,आप जितना ही छुपा लें लेकिन अन्दर की बातें निकल कर सामने आ ही जाती हैं , ये सब के सब आपस में बैठ कर मज़हब की बुराइयाँ करते हैं,बाबाओं,मौलवी साहबों,पंडितों को बुरा भला कहते हैं, कुफ्रिया कालीमात मुंह से निकालते हैं,नौज्बिल्लाह, अक्सर तो खुदा के वजूद पर ही बहस मुबाहिसा करते सुने गए हैं,बस पुख्ता सबूत का इंतज़ार है, गांव में सबकी बोलती बंद हो जाती है,हुक्का पानी उठने से सब डरते हैं,
जानते हैं एक बार जो गाँव बदर हुआ दोबारा उसको बिरादरी में कोई पूछेगा भी नहीं,राही मासूम रज़ा को आधा गाँव लिखने पर गंगौली से जो निकाला गया था तो दोबारा मियां की हिम्मत ना हुई जो अन्दर घुस सकें,
गली का कुत्ता भी बिरादरी बदर से अच्छा माना जाता है, कुत्ते को लोग पुचकार देते हैं रोटी डाल देते हैं लेकिन बिरादरी बदर को कोई झाकता तक नहीं,
खैर मेरे परिचित का पीलिया कुछ दिन की दवा से ठीक हो गया,
इसी दरम्यान एक सय्यद साहब भी दूर के किसी इलाके से वहां पधारे थे,चचा ने उनसे भी एक तावीज़ बनवा लिया था,सय्यद साहब के जलवे बड़े मशहूर हैं,
सबसे आम किस्सा यह है कि एक लड़की को मिर्गी आती थी, उसका इलाज भी उन्होंने ही किया था,लड़की पास के ही किसी जुलाहे की थी, मर्ज़ के चलते उसकी शादी नहीं हो पा रही थी, कुछ सरफिरे लोग यह भी कहते पाए गए थे की शादी ना हो पाने के चलते वो मरीज़ हो गयी है,
बहरहालजो भी हो,जुलाहा अपनी लड़की को बाबा के पास ले गया था,रोज़ मगरिब के पहले वो लड़की को बाबा के पास छोड़ आता और रात गहराते आ कर उसे वापस ले जाता, शुरू में लड़की ने वहां जाने में आना कानी की, बाप का शक अब यकीन में बदल गया था, ज़रूर ये वही बुरी शय है जो उसकी लड़की को पकडे है और अब बाबा के खौफ से डर गयी है,सोचती होगी कि बाबा उसे जला न दें,वो उसकी लड़की को बाबा के पास जाने से रोक रही है, लड़की छटपटाती,रोती लेकिन कोई न सुनता,धीरे धीरे वो "बुरी शय" कमज़ोर पड़ गयी और साथ ही लड़की का विरोध भी, एक महीने से भी कम वक़्त में लड़की की मिर्गी दूर हो गई, सय्यद साहब ने एक करम और किया,
"पैंतीस की हो रही है तुम्हारी बेटी, कौन शादी करेगा इससे, मैं निकाह पढवाए लेता हूँ"
जुलाहे की आंख में ख़ुशी के आंसू आ गए, इतना ऊंचा रिश्ता उसे कहाँ मिलता,सय्यद साहब की पहली बीवी हयात थीं,दोनों बीवियां रहेंगी,पहली बेगम तो ऊंची ज़ात की बीबी हैं, साथ रहना मुमकिन न होगा, उसकी बेटी को अलग खिलवत का इंतज़ाम हो जायेगा,कम से कम उसकी बाकी ज़िन्दगी तो ख़ुशी में बीतेगी,उसने बेटी के भविष्य की सारी संभावनाएं चट पट तय कर डाली,
बाबा का इतना बड़ा करम हुआ था उसपर,
एक तो लड़की की "बीमारी" ठीक हो गयी दूसरा बेटी का "बोझ" भी उतर गया,एक हिंदुस्तानी बाप को भला और क्या चाहिए?
चलिए ये कहानी तो ख़त्म हुई....आगे फिर कभी

~इमरान~