कोई व्यक्ति कितना ही बुरा क्यों न हो , यदि वो इनकी जाती और इनके धर्म का अनुयायी है और वो किसी ऐसे नेक और शरीफ आदमी से भिड़ गया है जो किसी दुसरे धर्म को मानता है तो यह लोग अपने धर्म/मज़हब वाले व्यक्ति की लाख गलती के बावजूद भी उसी अपने सहधर्मी का ही साथ देंगे .....
इस तरह की अंध पक्षपातपूर्ण धार्मिकता सबसे पहले व्यक्ति की न्याय क्षमता और इस प्रकार उसके सही गलत की समझ और सच के साथ खड़े होने की सलाहियत को ख़त्म कर देती है.....और फिर जो इंसान सही के साथ खड़े होने की काबिलियत नही रखता उससे आप क्या उम्मीद कर सकते हैं की वो अपने जीवन में कुछ कर सकेगा?
अच्छा इंसान बन कर समाज के लिए कुछ करने की बात तो छोड़ ही दीजिए,ऐसे लोग खुद अपनी अंतर्मन की आवाज़ को मार के अपने आप को ही धीरे धीरे समाप्त कर देते हैं.....
सही और गलत की पहचान हर इंसान के अंदर स्वाभाविक रूप से होती है...इसके पीछे कोई धर्म नही बल्कि उसकी स्वाभाविक संवेदना होती है जो उसे सही और गलत की समझ प्रदान करती है....कुछ लोगों का कहना है कि इस सही और बुरे के भेद को स्पष्ट करने वाली भावना व्यक्ति में धर्म से आती है....लेकिन ऐसा नही है....अक्सर लोग धार्मिक होते हुए भी अपने धर्म की बहुत सारी बातें नही मानते,या मानते भी हैं तो उसको कभी व्यव्हार में नही लाते....क्योंकि उनका अंतर्मन और उनकी सही को सही और गलत को गलत समझने की स्वाभाविक मानवीय तार्किकता उन्हें ऐसा करने से रोकती है....जैसे इस्लाम में चार शादियों की अनुमति है लेकिन बहुसंख्यक मुस्लिम इसे सही मानते हुए भी व्यवहार में 4 शादियां नहीं करते , ऐसा वो क्यों करते हैं?क्योंकि उन्हें कहीं न कहीं मन में इस बात का अहसास होता है कि ऐसा करना गलत होगा...यह अन्याय होगा अपनी जीवन संगिनी से जो उसके लिए अपना घर परिवार छोड़ उसके प्रेम में खुद को समर्पित किये हुए उसके साथ रह रही है....जो उसके सुख दुःख की साथी रही है....
यह भाव मनुष्य को धर्म नही बल्कि उसका अंतर्मन कहें या उसकी मानसिक तार्किकता कहें,या धर्म से इतर जो भी कह लें ,उसी से मिलता है....अक्सर धार्मिक जन यह दावा करते हैं की नैतिकता का मूल स्त्रोत धर्म है....क्या ऐसा वास्तविकता में है? यदि हम इसकी गहराई में जाएंगे तो पता चलेगा की वास्तविकता में यह सत्य के एकदम नज़्दीक से होकर गुज़रता एक ऐसा मिथ्या विचार है जो सत्य की तरह दिखने के कारण सत्य प्रतीत होता है..वास्तव में नैतिकता तो मनुष्य के अंतर्मन में ही वास करती है....उसका कहीं बाहर से आना संभव ही नही है....इसका कारण और इसके पीछे का तर्क भी वही है जो उपर लिखा जा चूका है.....नैतिकता तो सही को सही और गलत को गलत कहने की सलाहियत का नाम है....वो गलत चाहे धर्म के नाम पर हो रहा हो या किसी वाद के नाम पर....और सही को सही कहना और उसके साथ खड़ा रहना भी नैतिकता है....चाहे वो सही बात करने वाला व्यक्ति आपका कितना ही बड़ा प्रतिद्वंदी क्यों न हो....
एक बात इस विषय में और लिखूंगा....कभी मन से इसको सोचिये और आज़मा कर अवश्य देखिएगा....एक पल को अपने मन से धर्म,जाती,देश मज़हब और वाद की समस्त भावनाओं को अपने मन से एकदम समाप्त करके उनका एकदम से विसर्जन करके फिर अपने आस पास मौजूद इंसानों को देखिएगा....फिर देखिएगा आपके मन में मानवता के लिए कितना प्रेम उमड़ता है....सब लोग आपको आपके अपने लगने लगेंगे....बिलकुल सगे रिश्तेदार जैसे और यह सच भी है की दुनिया के सब इंसानों के बीच आपस में खून का रिश्ता है....
यह तो धर्म/वाद/सीमायें हैं जो उन्हें एक दूसरे में भेद करना और अलगाव पैदा करना सिखाती हैं....यह सब विकार है हमारे पैदा किये हुए जो इंसान को इंसान से अलग करते हैं....
हो सकता है कोई धर्म अपने समय की व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन रहा हो...लेकिन आज के दौर के लिहाज़ से वो आंदोलन परिमार्जित हो चुके हैं....कोई भी आंदोलन...कोई विद्रोह या कोई सुधार समय के साथ ही कालातीत हो जाता है और एक समय ऐसा आता है कि जब परिस्थितयों के चलते वो आंदोलन या सुधार वर्तमान हालातों में लागू किये जाने के लिहाज़ से सुधार के बजाये बिगाड़ बन जाता है....
हो सकता है कोई विचार किसी समय के लिहाज़ से वरदान रहा हो,लेकिन वक़्त के साथ साथ वो वरदान अभिश्राप भी बन जाता है यह भी सत्य है....क्योंकि सृष्टि सदैव परिवर्तनशील है....
मनुष्य की आवश्यकताएं...समाज में व्याप्त दोषों के आधार पर उसमें सुधार के लिए आवश्यक ज़रूरतें और उन सुधारों के मापदंड सदैव परिवर्तित होते रहते हैं स्थितियों के साथ साथ....जिस काल में जिस समाज में जैसे हालात होंगे उनमें उन्हीं हालातों और स्थितियों के अनुरूप सुधार किया जाएगा....
हज़ार हज़ार साल पुराने फार्मूले हमेशा लागू नही किये जा सकते उनपर....ऐसा करेंगे तो सुधार की बजाये बिगाड़ होना निश्चित ही है....
लेकिन धर्म को तो ज़िद है कि उसे बदलना नही है...धर्म को ज़िद है की बदलना तो समाज को ही है....एक मिसाल देता हूँ.....आप कोई कपडा बनवाते हैं,समय के साथ शरीर का माप बदलने के साथ वो कपड़ा आप हमेशा नही पहन सकते ,उसे बदलना होता ही है, लेकिन कपडा अगर ज़िद थाम ले की आपको तो मुझे ही पहनना है,तो आप क्या करेंगे...ज़ाहिर है उसे फेंक देंगे....
यह मानव स्वभाव है कि जो इसके अनुसार नही चल सकता उसकी वर्तमान परिस्थितियों के लिहाज से यह उसका परित्याग कर देता है....यही हाल धर्म का भी होना है और इसका आरम्भ विज्ञानवाद और तर्कवाद के प्रति बढ़ती जनमानस की रूचि के रूप में हो ही चूका है.....एक न एक दिन मानवता धर्म को भी पुराने कपडे की भांति उतार कर फेंक देगी.....