शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014

दो रवायतें

लखनऊ की एक पॉश कॉलोनी (संभवतः गोमतीनगर या चंद्रलोक इंदिरानगर,मुझे स्पष्ट याद नहीं,) का एक दृश्य, कॉलोनी में एक घर के सामने खड़ी कार का दरवाज़ा खुला देख एक लड़का कार के नज़दीक आता है, थोड़ी देर तक सोचने के बाद लड़का उस घर के दरवाज़े पर लगी घंटी बजाता है जिसके सामने कार खड़ी होती है,घंटी की आवाज़ सुन के अन्दर से एक तीस पैंतीस साला आदमी बाजर निकलता है और लड़के से पूछता है-
"जी कौन साहब"?
"मैं आपके सामने वाले घर में रहता हूँ,मेरा नाम राहुल है,आपकी कार का लॉक खुला रह गया है तो मैंने सोचा बता दूँ"
"ओह्ह! शुक्रिया, मैं भूल गया होऊंगा,अभी लॉक करता हूँ,

दूसरा दृश्य-
आजमगढ़ से सटे एक गाँव की तस्वीर ,एक लड़का लगभग दस/ग्यारह बजे रात को दूकान बंद कर के घर वापस जा रहा है,घर से कुछ दूर पहले एक बाइक खड़ी देखता है,चूंकि वो गली इतनी  पतली है की अपनी गाडी निकलने के लिए लड़के को उतर कर पहले से खड़ी मोटरसाइकिल को उतर कर किनारे करना पड़ता है, बाइक का हैंडल खुला देख लड़का वापस नहीं जाता,वहीँ से एक फोन मिलाता है,
काफी देर घंटी होते रहने पर कोई फोन नहीं उठाता तो लड़का खुद उस बाइक को खीचते हुए थोडा आगे एक पास के ही मकान तक ले जाता है,और बाहरी गेट खोल कर बेधड़क अन्दर घुसता जाता है, बाइक गेट के अन्दर खड़ी करके जोर जोर से आवाज़ लगाना शुरू करता है,सुषमाची !सुषमाची (सुषमा चाची जो जल्दी और जोर से चिल्लाने के कारण सुषमाची हो गयीं थीं) , बहरहाल आवाज़ सुनकर अन्दर से एक अधेड़ उम्र की महिला ऊपर ही छज्जे पर आती हैं-
"का हसन्ने,का हुआ?
"अरे असोकचा (अशोक चचा) आपन बाइकिया बाहरवें खड़ी करके भूल गए रहें,हम अन्दर लगा दिया है बताये दिओ"
" अच्छा बता देबे ऊँ अभी तो सोए हैं,,कैसा आज तू बड़ी देर बाद लौटेओ दुकनिया से"?
"हाँ उ आज काम जादा रहा न,अब चलत हैं हम,"
लड़का गेट वापस बंद करके बाहर आता है और अपनी बाइक उठा कर वापस अपने रस्ते चल देता है,

यह दो दृश्य कोई कोरी कल्पना नही बल्कि मेरी आँखों देखे दो दृश्य हैं,एक तेज़ी से मेट्रो शहर में परिवर्तित होते कभी तहजीब के गढ़ रहे लखनऊ के,जहाँ पैदाइश से लेकर बारहवीं कक्षा तक की पढ़ाई का मेरा जीवन बीता,और दूसरा मेरी बुआ के ससुराल जपटापुर के थोडा आगे आज़मगढ़ के नज़दीक पड़ने वाले किसी एक गाँव का दृश्य है, इन दो दृश्यों में दो अलग अलग भारत दीखते हैं जिन्हें वोह शख्स सबसे बेहतर समझ सकता है जिसने इन दोनों रूपों को नज़दीक से सिर्फ देखा नहीं जिया भी हो,एक तरफ अपने घर के सामने रहने वाले राहुल से "जी कौन साहब" पूछता एक पॉश इलाके का नागरिक है और दूसरी तरफ कई गलियों दूर रहने वाले अशोक चचा की बाइक का लॉक खुला देख उसे पहचान जानने वाला और खीच कर असोकचा के घर तक पहुचाने वाला हसन्ने है ,भले से इन गांवो में आपसी पट्टीदारी की कितनी ही लड़ाई हो,लेकिन वक़्त ज़रूरत पर काम भी सब एक दुसरे के आते हैं और खूब आते हैं,मस्त होता है गांव,एकदम लकड़ी के चूल्हे से उतरी ताज़ी ताज़ी रोटी की तरह :)

किसी शायर का एक शेर याद आया-,

"तुम्हारे शहर में मय्यत को सब कान्धा नहीं देते,
हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिल के उठाते हैं"

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