मन्टो पर बहस हो सकती है, चिरकीन पर नहीं,
मामला दरअसल ये है की मंटो जहाँ रूह को झिंझोड़ते हुए समाज को एक तल्ख़ आइना दिखाते हैं वहीँ चिरकीन पेट को गुड़गुड़ा कर बैतुलखला का रास्ता दिखा देते हैं।
मंटो को पढ़ने से जहाँ मन हक़ीक़त की खुशबु से लबरेज़ हो उठता है वहीँ चिरकीन को पढ़ने से मन की खुशबु खत्म होकर इश्क़ की अलग खोजी गयी बदबू में तब्दील हो जाया करती है, जी हाँ,इश्क़ में बदबू भी होती है बक़ौल चिरकीन।
मिसाल के तौर पर,मंटो कहते हैं -"अगर आपको मेरी कहानियां नाक़ाबिल ए बर्दाश्त लगती हैं तो इसका मतलब आपका ये ज़माना नाकाबिल ए बर्दाश्त है,
यानि मंटो स्पष्ट बताते नज़र आते हैं की उनके अफ़साने समाज की हकीकत से आपको साथ बेदर्दी के आशना करते हैं ।
आपमें सच सुनने और झेलने की हिम्मत हो तो ही मंटो की किताब उठायें वरना अलमारी की खूबसूरती बढ़ाने दें उसे, क्या फायदा एक मर चुके इंसान को आपका जड़बुद्धि ज़ेहन और गलियों से नवाज़े ।
रही बात चिरकीन की तो उनके पढ़ने लिए आपको शेर का जिगर चाहिए.... और जी मितलाना और उबकाई आना जैसे मर्ज़ अगर आपकी नियति हैं तो फिर चिरकीन आपके लिए नहीं....वो कैसे?
लीजिए पढ़ लिए चिरकीन मियां को भी एक बार,मानसिक विक्षिप्त तो ज़रूर रहा ये बन्दा लेकिन प्रतिभा का धनी भी था,उसने अपनी प्रतिभा को कहाँ और किन हल्क़ों में खर्च किया ये एक अलग बहस का मौज़ू हो सकता है ।
बहरहाल,उन तमाम बहस ओ मुबाहिसा से अलग, ज़ेर ए खिदमत है जनाब चिरकीन साहब का एक जिगरअफ़सुर्दा कलाम, (एक महज़ इसलिए कि उससे ज़्यादा आप बर्दाश्त ना कर सकेँगे ।
" तूने आना जो वहां गुंचा दहन छोड़ दिया,
गुल पे पेशाब किया हमने चमन छोड़ दिया,
इतर की बू से मुअत्तर हुआ बुलबुल का दिमाग
गूज़ जो तूने अये गुंचा दहन छोड़ दिया"
*ग़ुज़ (farting)
तो देखा आपने, क्यों मन्टो के अलावा चिरकीन का ज़िक्र नही होता , और क्यों ये एक विक्षिप्त मानसिकता का लेकिंन गज़ब का प्रतिभाशाली शायर तहज़ीबदारों की बज़्म से कहीं गायब सा हो गया....;)
चिरकीन साहब पर आगे फिर कभी.....आगे कब? यह नहीं बताएंगे।
~इमरान~