शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

मन्टो और चिरकिन

मन्टो पर बहस हो सकती है, चिरकीन पर नहीं,
मामला दरअसल ये है की मंटो जहाँ रूह को झिंझोड़ते हुए समाज को एक तल्ख़ आइना दिखाते हैं वहीँ चिरकीन पेट को गुड़गुड़ा कर बैतुलखला का रास्ता दिखा देते हैं।

मंटो को पढ़ने से जहाँ मन हक़ीक़त की खुशबु से लबरेज़ हो उठता है वहीँ चिरकीन को पढ़ने से मन की खुशबु खत्म होकर इश्क़ की अलग खोजी गयी बदबू में तब्दील हो जाया करती है, जी हाँ,इश्क़ में बदबू भी होती है बक़ौल चिरकीन।

मिसाल के तौर पर,मंटो कहते हैं -"अगर आपको मेरी कहानियां नाक़ाबिल ए बर्दाश्त लगती हैं तो इसका मतलब आपका ये ज़माना नाकाबिल ए बर्दाश्त है,
यानि मंटो स्पष्ट बताते नज़र आते हैं की उनके अफ़साने समाज की हकीकत से आपको साथ बेदर्दी के आशना करते हैं ।
आपमें सच सुनने और झेलने की हिम्मत हो तो ही मंटो की किताब उठायें वरना अलमारी की खूबसूरती बढ़ाने दें उसे, क्या फायदा एक मर चुके इंसान को आपका जड़बुद्धि ज़ेहन और गलियों से नवाज़े ।

रही बात चिरकीन की तो उनके पढ़ने लिए आपको शेर का जिगर चाहिए.... और जी मितलाना और उबकाई आना जैसे मर्ज़ अगर आपकी नियति हैं तो फिर चिरकीन आपके लिए नहीं....वो कैसे?
लीजिए पढ़ लिए चिरकीन मियां को भी एक बार,मानसिक विक्षिप्त तो ज़रूर रहा ये बन्दा लेकिन प्रतिभा का धनी भी था,उसने अपनी प्रतिभा को कहाँ और किन हल्क़ों में खर्च किया ये एक अलग बहस का मौज़ू हो सकता है ।
बहरहाल,उन तमाम बहस ओ मुबाहिसा से अलग, ज़ेर ए खिदमत है जनाब चिरकीन साहब का एक जिगरअफ़सुर्दा कलाम, (एक महज़ इसलिए कि उससे ज़्यादा आप बर्दाश्त ना कर सकेँगे ।

" तूने आना जो वहां गुंचा दहन छोड़ दिया,
गुल पे पेशाब किया हमने चमन छोड़ दिया,
इतर की बू से मुअत्तर हुआ बुलबुल का दिमाग
गूज़ जो तूने अये गुंचा दहन छोड़ दिया"

*ग़ुज़ (farting)

तो देखा आपने, क्यों मन्टो के अलावा चिरकीन का ज़िक्र नही होता , और क्यों ये एक विक्षिप्त मानसिकता का लेकिंन गज़ब का प्रतिभाशाली शायर तहज़ीबदारों की बज़्म से कहीं गायब सा हो गया....;)

चिरकीन साहब पर आगे फिर कभी.....आगे कब? यह नहीं बताएंगे।

~इमरान~

गुरुवार, 30 जुलाई 2015

निरन्तरशीलता और परिवर्तनशिला

अनुभव अपने आप में एक शोध होता है, अनुभव एक ऐसा कागज़ है जिसपर आपकी गलतियों से साथ साथ उनका निवारण और पश्चाताप भी लिखा रहता है।
लिखने से याद आया,आप अक्सर जज़्बात में किसी ख़ास के लिये लिखना शुरू करते हैं,अपने लफ्ज़ किसी के नाम कर दिया करते हैं ।

आपके लेखों में होने वाले सभी ज़िक्र और तज़किरे किस एक बुत से मानूस हो जाया करते हैं और फिर उनमें निरंतरता शुरू हो जाती है ।

लेकिन इस निरंतरता और परिवर्तनशीलता में एक मामूली सा फर्क होता है, निरंतरता वहीँ अपनी जगह रुकी रहती है जबकि परिवर्तनशीलता का कोई ठौर नही ठिकाना नहीं ।
आज किसी को आपके लफ्ज़ पसंद आते हैं, कल को कोई बेहतर लिखने वाला आ जाता है...
आपकी किसी के लिए लिखने की निरन्तरशीलता तो वहीँ धरी की धरि रह जाती है लेकिन परिवर्तनशीलता निष्ठुरता से आपकी मौलिकता को ठोकर मारके आगे बढ़ जाया करती है... आप धरे लिए बैठे रह जाइये अपनी निरन्तरता ।

कहते हैं परिवर्तन संसार का नियम होता है,जिसे आपने हर हाल स्वीकार करना ही करना होता है.....लेकिन वो इमरान रिज़वी ही क्या जो नियमों से हार जाए या आत्मसमर्पण कर जाए ।
तो भईया...:आपकी इस परिवर्तनशीलता से प्यारी हमको हमारी मौलिकता और निरंतरता है ।

हाँ अगर कभी लगा की आपका कोई वांछित या अवांछित बदलाव हमारे हम दोनों के वास्तविक हितों के लिए ज़रूरी हो चला है फिर देखा जायेगा...तब तक...आप हमें पढ़ें,न पढ़ें...वो आपकी मर्ज़ी..
वैसे भी ऊपर कह चुका हूँ....दुनिया में काफी अच्छे लेखक मौजूद हैं,रुजू कीजिए,खुश रहिए,हम तो न बदलेंगे ।

शनिवार, 18 जुलाई 2015

साम्यवादी हिंसा के प्रश्न पर

वैचारिक/दार्शनिक अर्थों में हिंसा का अर्थ केवल रक्तपात करना या बन्दूक चलाना ही नही होता.. हिंसा का अर्थ बल प्रयोग या किसी भी प्रकार का नैतिक अनैतिक दबाव भी हो सकता है। 

हिंसा रक्तपात का समानार्थी शब्द नही है ,हर किस्म का दबाव या बल प्रयोग हिंसा की श्रेणी में ही आता है

किसी वस्तु (मान लें सत्य) का आग्रह भी अगर ह्रदय परिवर्तन या नैतिकता का भाव पैदा कर पाने के बजाए भौतिक विवशता पैदा करता है तो यह भी हिंसा की श्रेणी में आएगा ।

अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन के दौरान गांधी के सत्याग्रह ने भी अंग्रेजों का हृदय परिवर्तन न करके आंदोलनरत जनता के दबाव में उनको भौतिक तौर पर भारत छोड़ने को विवश किया था।

इस प्रकार इस देश में अहिंसा का सबसे बड़ा प्रतीक समझे जाने वाले महात्मा गांधी स्वयं अपने ही अहिंसा के सिद्धांत की कसौटी पर खरे नही उतरते थे बल्कि उसके विपरीत जाते ही नज़र आते हैं ।

हम कम्युनिस्टों पर हमेशा रक्तपात वाली हिंसा का आरोप लगता आया है, जबकि वास्तविकता यह है कि कम्युनिस्ट पहले कभी भी हिंसा शुरू नहीं करते बल्कि उसका प्रतिकार मात्र करते हैं, लेकिन शासक वर्ग आसानी से जनता को उनका हक नहीं देते तो सत्ता जनता के लिए कैसे छोड़ेंगे? तो कम्युनिस्टों को भी आत्मरक्षा और विजय प्राप्ति के लिए इन ज़ालिमों पूंजीपतियों के खिलाफ बन्दूक उठानी ही पड़ जाती है ।

जहाँ तक हिंसा के प्रकारों का प्रश्न है तो हिंसा दरअसल  तीन प्रकार की होती है :-

1-व्यतिगत हिंसा 2-भीड़ की हिंसा

( इन दोनों के बारे में आप जानते ही होंगे, आपसी लड़ाई झड़े, भीड़ के दंगे मारपीट)

अंत में  3- संरचनागत हिंसा

सामाजिक राजनीतिक स्तर पर संगठित हिंसा का सबसे बड़ा उदाहरण राज्यसत्ता है।
यह राजसत्ता की हिंसा दरअसल शासक वर्ग का शासित वर्गों के ऊपर अपना अधिनायकत्व थोपने का का उपकरण है। जहाँ शासक वर्ग अपने सहायक तत्व जैसे संविधान, राज्य आर्मी, पुलिस, अर्धसैनिक बल, ख़ुफ़िया एजेंसिया इत्यादि के माध्यम से लॉ इन्फोर्समेंट तथा अपने अन्य सांस्कृतिक वैचारिक उपकरणों के माध्यम से शोषित वर्ग को एक व्यवस्था विशेष (पढ़ें पूंजीवाद) में रहने को विवश करता है जहाँ एक उधोगपति पूरे देश के आर्थिक संसाधनों पर 90% जनता से ज़्यादा अधिकार रखता है और शेष जनता बमुश्किल अपनी दो जून की रोटी जुटा पाती है,

बाकी ताज़ा उदाहरण सलमान को एक घण्टे में जेल फिर बेल से लेकर भारत में रोज़ाना भूख कुपोषण से होने वाली सैंकड़ो हज़ारो रिकॉर्डड अंरिकार्डेड मौतों के रूप में आपके सामने इस महान संवैधानिक व्यवस्था की संरचनागत हिंसा का वीभतस्तम रूप मौजूद है ही...और मिसालें भी आती रहेंगी ।

हम कम्युनिस्ट हिंसा नहीं करते, वो केवल सत्ता और इसके सहायक उपकरणों द्वारा सर्वहारा समाज पर लादी गयी जबरन नैतिक हिंसा तथा व्यवस्था विशेष में जीने को और इस प्रकार उनकी ज़िन्दगी नर्क बना देने की इस "सिस्टम" की संरचनागत हिंसा का प्रतिकार मात्र करते हैं।
इस प्रतिकार को रोकने के लिए शासक वर्ग अपनी पूरी ताक़त (पुलिस,आर्मी,मीडिया,बल) इत्यादि सब झोंक देता है,मजबूरन अपना हक़ मांगने आये मज़दूरों को भी बन्दूक उठाकर लाल ध्वज के साथ क्रांति की रणभेरी बजानी पड़ ही जाती है ।

क्रांति और व्यवस्था की हिंसा का प्रतिकार उस देश काल परिस्थिति पर निर्भर करता है जहाँ क्रांति की जानी है....वहां के समाज व्यवस्था और तन्त्र का वैज्ञानिक अध्ययन करके क्रांति की रणनीति तैयार की जाती है।

संविधान, देशभक्ति, राष्ट्रवाद, धर्मान्धता के मीठे जुमलों में जनता को मूल मुद्दे (पूँजी के शोषण) से भटका देना और शोषित मेहनतकश को एक एक दाने के लिए तिल तिल कर मरने के लिए मजबूर करना....हिंसा का सबसे वीभत्सतम रूप यदि कोई है तो यही है।


जिस वक़्त रशिया में क्रांति संपन्न हो गयी थी तब कुछ ईसाई पादरी जाहिल और अनपढ़ किसानों के बीच जाकर चुपके चुपके उनको भड़काते थे, लेनिन एंटी क्राइस्ट हैं, शैतान नास्तिक है, इसके पीछे क्यों दीवाने हो? नर्क में जलोगे।

वहां के अनपढ़ जाहिल किसानों ने उन पादरियों को दो टूक जवाब दिया-"भले से लेनिन इसा के दुश्मन हों लेकिन उन्होंने हमें हमारी ज़मीन वापस दिलाई है" 

तो साबित हुआ की वर्ग चेतना का सम्बन्ध "पढ़े लिखे" होने से नही होता,बल्कि सही मार्क्सवादी नेतृत्व द्वारा सर्वहारा के बीच जाकर उनमे वर्ग चेतना और वर्ग संघर्षों की वास्तविकता का आभास कराने से होता है।

यह कार्य अलग अलग देशों में वहां की तत्कालीन परिस्थितियों के अध्यन के पश्चात सही रणनीति बनाकर ही किया जाता है,किसी एक नेतृत्व की नीति को दोहरा कर नहीं ।

जैसे रशिया में सर्वहारा की स्थिति और क्रांति की संभावनाओं को भांप कर साथी लेनिन ने किया ,
लेकिन चीन में साथी लेनिन के तरीके को दोहराने के बजाये वहां की तत्कालीन स्थितियों का आकलन और अध्यन करने के बाद सर्वहारा के महान शिक्षक चेयरमैन माओ ने अपने तरीके से क्रांति को संपन्न किया ।

भारत में मौजूद खुद को "लेनिनवादी" या "माओवादी" कहने वाले कथित मार्क्सवादी दल/संगठन मौजूद हैं,

जबकि नक़ल के खिलाफ लेनिन और माओ दोनों ही थे लेकिन भारत के लोग नकल करना कैसे छोड़ सकते हैं, यह तो हमारे स्वाभाव में शामिल हो चुकी है....

पिछले 60-70 सालों में अभी तक भारत के सर्वहारा समाज और उनकी राजनैतिक/सामाजिक स्थिति,भारत के पूंजीवाद और उनकी सहायक संस्थाएं जैसे संविधान, धार्मिक,जनवादी मानवतावादी राजनैतिक दल,इस पूरी व्यवस्था के दामन पर लगे खून के धब्बे धोने वाले डिटर्जेंट की भूमिका निभाने वाले अलाने फलाने अधिकार आयोग आदि इत्यदि की व्यवस्था और तन्त्र का अध्यन करने और उसके बाद सर्वहारा के बीच जाकर उनमे वर्ग चेतना किस सीमा तक और कितनी जागृत कर सकने में सफलता प्राप्त कर सके हैं?

भारत में खुद को कम्युनिस्ट कहने वाली जनवादी पार्टियों की स्थिति किसी से छिपी नही है, इनका एक ताज़ा उदाहरण लीजिए

हाल ही में केंद्र सरकार ने कर्मचारियों द्वारा समय से पहले पीएफ से पैसे की निकासी पर टीडीएस कटौती का फैसला लिया ,फैसले के विरोध में ईमेल के दौर में जीने वाले आरएसएस के मज़दूर संघ और कांग्रेस के श्रमिक संगठन इंटक ने सरकार को "चिट्ठी लिखकर विरोध" जता दिया ।

बाक़ी "कामरेड वामपंथी" श्रमिक सन्गठन वालों की भी सुन लीजिए, उनकी तरफ से हर साल दो साल पर होने वाली आम हड़ताल की तरह इस बार भी किसी हड़ताल या प्रदर्शन की चेतावनी दी गयी है,

ये समझौतावादी खून के धब्बे साफ करने वाली धुलाई पोंछाइ टाइप हड़ताल और धरना प्रदर्शन वाले समझौते होते रहेंगे...व्यवस्था की उम्र लंबी होती रहेगी...
बाक़ी कोई वैज्ञानिक अध्यन करके भारतीय सर्वहारा समाज में में वर्ग चेतना जागृत करने के लिए आप वामपंथी दल क्या कर रहे हैं?...क्या हम मान लें कि आपसे न हो पायेगा?


शनिवार, 11 जुलाई 2015

जंग ए इश्क़

ना जंग ए इश्क़ में तलवार लेके हम उतरे
जिरह कोई न थी न ढाल लेके हम उतरे

चले जो सू ए मैदां तो शहसवार भी न थे
सिपाह भी साथ न थी कोई सालार भी न थे

सामने कोई लश्कर नहीं था वो अकेला था
वो मेरी जान का दुश्मन हसीं बला का था

हुआ जो वार था पहला वो उसकी जानिब से
नज़र का तीर चलाया था दिल के राकिब ने

आके सीने पे सही सिम्त वार लग ही गया
वो पहले वार में फैसला ए जंग कर ही गया

गिरे ज़मी पे तो आँखों में इक अन्धेर सा था
खुली जब आँख तो सर उनके ज़ानू पा था

मुस्कुरा के वो बोले हो जाना मुबारकबाद तुम्हें
हार के मुझसे मिला है लक़ब ए ग़ाज़ी तुम्हें

~इमरान~


गुरुवार, 9 जुलाई 2015

मदरसों में आधुनिक शिक्षा की आवश्यकता

शिक्षण संस्थान का दर्जा दूर की बात ....मेरे ख्याल से जिन मदरसों में विज्ञान कंप्यूटर और गणित नहीं पढ़ाये जाते उन्हें बन्द ही हो जाना चाहिए ....
साल 2015 में आप 1400 साल पहले लिखी गयी किताबें और कहीं काम न आने वाली बेमसरफ ज़बाने (अरबी/उर्दू) पढ़ाकर उन्हें कार्टूनों जैसे लिबास और वेशभूषा देकर अपने बच्चों को आखिर एलियन क्यों बनाना चाहते हैं....

माना की मदरसों में तालीम पाने वाले बच्चे ज़्यादातर ऐसे गरीब वर्गों से आते हैं जहाँ उनके पास दो वक़्त की रोटी बमुश्किल जुट पाती है , फिर ऐसी स्थिति में तो मदरसों में आधुनिक शिक्षा का महत्व और भी ज़्यादा हो जाता है....
ठीक है बच्चों के ज़ेहन में अपना अपने धर्म मज़हब रिलिजन रुपी गलाज़त घुसाये बिना आप भारतीय परिवारों में परवरिश ही अधूरी मानी जाती है , कम से कम साथ में आधुनिक शिक्षा भी दी जायेगी तो उनमे एक नज़रिया तो पैदा होगा....इसपर पेटदर्द क्यों ?

जो काम महाराष्ट्र की सरकार ने किया है वो इस मुल्क के मुसलमानो को बहुत पहले ही कर देना चाहिए था । खुद समूहों में जाकर मदरसों के संचालकों पर दबाव बनाकर उन संस्थाओं में आधुनिक शिक्षा शुरू करवाने को कहना चाहिए था ।
बाक़ी तो जब तक यह पूंजीवादी व्यवस्था मौजूद है,किसी भी हालत में पूरा देश समान रूप से शिक्षित नहीं हो सकता ...... साक्षर भले से हो जाये ।

सोमवार, 6 जुलाई 2015

आज की रात


गुज़र रही है कुछ

शबो की मानंद

अकेली तन्हा 

और उदास सी

मेरे कमरे की 

छतों को तकती

मेज़ पर पड़ी इस 

बेजान डायरी में

ज़िंदा हरुफ़ तलाशने की

नाकाम सी कोशिश करती

बीत ही रही है

तुम्हारे सिवा

फ़क़त इस एक 

पुरअम्न आसरे पर

कि शायद कल

तुम मेरे साथ रहो

लेकिन ये आज की रात

लेकिन.....

ये आज की रात.....


~इमरान~.