नही मैं ऐसा पर्वतारोही
कि पहुंच सकूँ
तुम्हारे शिखर तक
मैं तो बस पास के
अलग अलग संभव शिखरों पर चढ़कर
अलग अलग कोणों से
देखना चाहता हूँ
तुम्हारी गर्वीली ऊंचाई
पहले दूर से
फिर और निकट
और निकट जाते हुए
जहाँ तक
जा पाना संभव हो
क्यों कर के छिपाएं
निशानात ए मुहब्बत,
बीतें हैं बड़े उम्दा
लम्हात ए मुहब्बत,
इश्क़ लम्हा इश्क़ घण्टा
इश्क़ दिन और महीना,
सालों से हैं जारी
सिलसिलात ए मुहब्बत,
कभी दैर पर तो
कभी दीवारों पे हरम की,
हम छोड़ आये हैं
असरआत ए मुहब्बत,
कभी पास है तू
कभी दूर बेहद,
करे तय क्योंकर
मंज़िलात ए मुहब्बत,
तुम बसे हम मे
हम बसे तुम में,
तुम्ही से मिले हमको
जज़्बात ए मुहब्बत,
~इमरान~
जब भगत सिंह को फांसी देने का समय आ गया और जेलकर्मी उन्हें उनकी बैरक से लेने आये तो देखा भगत कोई किताब पढ़ रहे है।
जेलकर्मी ने जल्दी चलने को कहा तो क्रन्तिकारी नेता ने जवाब दिया
"थोड़ा रुक जाओ, लेनिन को पढ़ रहा हूँ, एक क्रन्तिकारी दुसरे क्रन्तिकारी से बात कर रहा है"
जेलकर्मी खड़े रहे, कुछ पलों बाद भगत उस किताब को जितना पढ़ चुके थे वहीं से पन्ना मोड़ कर चल दिए फांसी घर की ओर ।
आज देश के तमाम नौजवानों युवाओं की ज़रूरत है कि भगत की किताब के उस मुड़े पन्ने को फिर से खोलें,
एक नई शुरुआत करते हुए उस लड़ाई को और आगे बढ़ाकर इस अधूरी आज़ादी को पूरी आज़ादी यानी पूर्ण स्वराज में परिवर्तित करें ।
~इमरान~
क्या वाक़ई ज़िन्दगी
कोई गीत है
या कोई खेल तमाशा
या उम्मीदों सा सर फोड़ता
सख्त पत्थर है कोई
कभी ये गिराती है
तो कभी ये उठाती है
जब गिराती है ज़िन्दगी
तो ये पाताल पर भी नही रूकती
और जब उठाती है
तो पार कर जाती है
सातों आसमां
ज़िन्दगी आखिर है क्या
ज़िन्दगी भर
ये ये मेहनतकशों की दुनिया
इजारेदारी की गुलामी की
ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ
इन संगलाख बन्धनों को
तोड़ देना चाहता है
क्योंकि अब वो समझ चूका है
ज़िन्दगी वाक़ई अगर है तो
महज़ आज़ादी में ही
ज़िन्दगी है तो बस
बराबरी के निज़ाम में है
सिवाए इसके ये
ज़िन्दगी कुछ नही
कुछ भी नहीं.....
~इमरान~
Iफिर वो चाहे फैशन हो या प्रेम संबंध या लड़ने झड़ने के तरीके ऐसे तमाम तथ्य हैं जो फिल्मों में दिखये जाने के बाद हमारे युवा वर्ग के लिए प्रेरणास्त्रोत बनते हैं और वास्तविक जीवन में उनकी झलक अक्सर देखने को मिल जाती है।
लेकिन फिल्मों में दिखाए जाने वाली इन बातों का बालमन (युवामन) पर और भी क्या क्या असर पड़ता है यह एक विचारणीय एवं ज्वलंत प्रश्न है ।
ताज़ा मामला 'बाहुबली' फ़िल्म के एक सिक्वेंस का है जिसमें फ़िल्म का हीरो, फ़िल्म की हीरोइन और योद्धा अवंतिका के संग बार-बार जबरदस्ती करते है, नाचते-गाते हुए उसे छूते है, उसके ऊपरी कपड़े उतारते है और विरोध के बावजूद उसके कपड़ों को बदलता जाता है.
इसके कुछ ही पलों बाद अवंतिका का हीरो पर दिल आ जाता है और दोनों बाँहों में बाँहें डाले सो जाते हैं.
नाच-गाने के साथ किए गए बलात्कार के इस उदाहरण से एक पुरानी रूढ़िवादी पुरुषप्रधान धारणा को बल मिलता है कि औरत को ताक़त से ही जीता जा सकता है.
किक (2014) में हीरो सलमान ख़ान ढेर सारे पुरुष डांसरों के बीच नाचते हुए जैकलीन फर्नांडीज़ की स्कर्ट को अपने दांतों से उठाता है।
आप देख सकते हैं कि बॉलीवुड की नज़र में लड़कियों के संग की जाने वाली ऐसी यौन हिंसा क्यूट और मजेदार है
यहाँ तक कि समझदार लगने वाले इम्तियाज़ अली जैसे निर्देशक की जब वी मेट (2007) और रॉकस्टार (2011) जैसी फ़िल्मों में भी रेप जैसे जघन्य अपराध को लेकर चुटकुले गढ़े गए होते हैं.
ऐसी फ़िल्मों की आलोचना करने पर एक घिसापिटा जवाब ये मिलता है कि फ़िल्मों में तो वही दिखाया जाता है जो भारतीय समाज में होता है.
यह सच है कि फ़िल्में समाज का आइना होती हैं ,लेकिन यह बात उतनी ही सच है जितना की यह तथ्य की हमारा युथ खासकर स्कुल कालेज जाने वाला तबका किसी न किसी फंतासी में जीवन बिताने वाला तबका इन्ही फिल्मों से प्रेरणा भी लेता है और कभी कभी तो वास्तविक जीवन में भी इन्हें अपनाने से नही चूकता।
इस मुद्दे पर लिखने वाले हम वामपंथी लोगों को अक्सर पता चलता है कि ऐसे बहुत से लोग हैं जो आपकी राय से सहमत हैं लेकिन वो ख़ुद को अकेला महसूस करते हैं क्योंकि उनके आसपास कभी भी किसी ने अपनी आवाज फिल्मों में दिखाई जाने वाली यौन हिंसा के विरुद्ध नहीं उठाई.
बाक़ी भारतीय फिल्मों में दिखाए जाने वाले बलत्कार जैसे सीन्स की अगर चर्चा करने बैठ जाएँ तो हमारा पूरा अख़बार भर जायेगा और फिर भी ज़िक्र पूरा न हो सकेगा ।
अंत में बात समाप्त करते हुए अपने पिछले तर्क के साथ कि फ़िल्में समाज का आईना होने के साथ साथ किशोरों/युवाओं का प्रेरणास्त्रोत भी बनतीं हैं हमें इस बात पर की विशेषकर हमारे भारतीय सेक्स कुंठित समाज में बलत्कार जैसे दृश्य दिखाए जाने की वर्तमान प्रासंगिकता और उसके पड़ने वाले दुष्प्रभावों पर भी गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है ।
एक और तथ्य लिखना आवश्यक समझता हूँ जैसा की मैंने आमतौर पर देखा है सड़क बस ट्रेन जैसी जगहों पर आते जाते महिलाओं को परेशान करने वाले मनचलों की खबर जब अख़बारों में हमारे पत्रकार "छेड़छाड़" की कैटेगरी में रखने की शाब्दिक भूल कर बैठते हैं, जो कि वास्तविकता में आगे चलकर महिलाओं की सुरक्षा के विरुद्ध एक ऐतेहासिक भूल साबित होगी ।
छेड़छाड़ तो एक मीठा प्यारा सा शब्द हुआ करता है जहाँ पति/पत्नी , प्रेमी प्रेमिका, भाई बहन, मित्र मित्राणि, नाते रिश्तेदार एक दूसरे से हंसी मज़ाक ठिठोली करते हैं , यह एक प्रकार का आपसी पारिवारिक मनोरंजन है।
वहीं सड़क बस या ट्रेन में आ जा रही महिला को किसी यौन कुंठित व्यक्ति द्वारा अपनी कुंठा से प्रेरित होकर शारीरिक मानसिक रूप से उत्पीड़ित या परेशान करना, यह छेड़छाड़ नही साथी बल्कि विशुद्ध रूप से यौन हिंसा की श्रेणी में आता है।
इस लेख के माध्यम से अपने पत्रकार बन्धुओं का भी ध्यान हमारी इस भयंकर महिला विरोधी मानवीय भूल की ओर आकृष्ट कराना चाहता हूँ
साथ ही समस्त सांस्कृतिक/राजनैतिक/ गैर राजनैतिक संगठनों से भी निवेदन करता हूँ कि वो फिल्मों में से दुष्प्रेरण और अपराध के लिए उकसाने वाले दृश्यों को हटाने संबन्धी मांगे, बौद्धिक चर्चाएं, और सामाजिक माहौल तयार करें ताकि नर्क बनती जा रही इस धरा को आधी आबादी के रहने लायक एक बेहतर स्थान बनाया जा सके ।
आँखों देखी
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मंदिर के अंदर भजन चल रहा था, "रामचंद्र कह गए सिया से.." बाहर एक सब्ज़ी के ठेले के पास दो मुसलमान मज़दूर खैनी रगड़ते हुए आपस में बातें कर रहे थे, भजन की आवाज़ कान में पड़ने पर एक मज़दूर दूसरे से शिकवे भरे लहजे में बोला, "देखेओ ! रामचंदर जी को भी जोहन कुछ कहना रहा सब सिया (शिया) लोगन से ही कह के गए रहे, सुन्नी मसलक के लोग से कुछ न कहिन.......!
दुसरा दृश्य,- एक धर्मशाला के पास मैदान में चुनावी जनसभा चल रही है,मंच से वर्तमान विधायक भाषण दे रहे हैं,
"मैंने निधि का लगभग सारा पैसा खर्च कर दिया है दोस्तों, 75 लाख रूपये सीधे बिजली के कामों में दिए जिसका परिणाम आपको बहुत जल्दी जनपद के नए सिरे से विधुतीकरण के रूप में नज़र आने वाला है"
सबसे आखिरी पंक्ति में खड़े बीड़ी पीते हुए भाषण सुन रहे लोग आपस में टुकुर टुकुर एक दूसरे को ताकने लगते हैं
-"अब निधि का करीहे बिचारी,ओकरा पैसवा कुल बिधायक ले लिहन,,,
दूसरा बोला-और सारा खरचौ कर दिहन, बेचारी औरत जात,
तीसरा-कहाँ जईये केसे रोइहये अपना दुखड़ा...!बहुत गलत कीहन नेता ई काम,बिजली ससुर का अत्ति जरूरी रही?
तीसरा सीन- हलवाई की दूकान पर रखे टीवी में अमिताभ बच्चन की फ़िल्म शान का टाइटल सांग चल रहा है, छनती जलेबी निकलते देख रिक्शे वाला रुक गया,सवारी से इल्तजा की भाईसाहब बच्चों के लिए लेता चलूँ... सवारी मान गयी,इतने में हलवाई के लड़के ने टीवी का चैनल बदलना शुरू कर दिया, एक न्यूज़ चैनल पर मुख्यमंत्री उप्र भाषण दे रहे थे, रिक्शे वाले ने देखा, बगल खड़े एक चश्मा लगाये सज्जन से पूछ बैठा-"यहु नेता हैं का?"
जवाब मिला-"ई मुलायम सिंह के लरिका हैं,
अच्छा कौन लम्बर के?
बड़के हैं, ईनकर नाम है अखिलेस... मुखमंतरी"
रिक्शे वाले को बड़ी हैरानी हुई, तो अब नखलऊ के मंतरी ई बन गए?और मुलायम सिंग कहाँ गए?
"ऊ अब रिटायर होके दिल्ली चले गए",
मुख़्तसर जवाब दे कर चश्मे वाले सज्जन अपना सामान लेकर बढ़ दिए....
इधर रिक्शे वाला नेताजी के लिए चिंतित हो उठा,जलेबी की पुड़िया रिक्शे के हैंडल से लटकाकर सवारी से बतियाता हुआ आगे बढ़ा-"बताइये बहनजी,आज कल के लईका लोग,तनिकौ बड़ा हुए नही की बाप माँ को दिल्ली उल्ली भेज देवत हैं कुल अपना कब्जियाए के चक्कर में...भारी कलजुग है बड़ा...!
सवारी चुपचाप बैठी बिना कोई जवाब दिए अपने मोबाइल के टचपैड पर उंगलिया फिसलाती रही...
चौथा और फिलवक्त याद आखिरी मंज़र- दो लम्बे बालों वाले पढ़े लिखे से लगते लड़के एक रिक्शे पर बैठे,
उनमे से एक मज़ाक के मूड में लग रहा था,
उसने रिक्शे वाले से मौज लेना शुरू कर दी,रिक्शे वाला भी हाँ में हाँ मिलाने लगा...
लड़के ने कहा-भईया लाल सलाम"
जवाब मिला
आपको भी लाल शलाम,
लड़के ने पूछा- जानत हो लाल सलाम का होवत है?
"हाँ जानते काहे नही हैं!"
लड़का इस बार ज़रा हैरानी से बोला, बताओ का जानत हो...?
"वो जैसे जयराम जी की,अस्सलामवालेकुम, वैसे ही लाल शलाम भी होता है.."
लड़का अवाक् सा रह गया.... रिक्शा अब तक घंटी बजाते हमारी नज़रों से ओझल हो चुका था....
~इमरान~
वास्तविक भारत के क़लमनवीस,
प्रेमचन्द बंगलों में आरामफ़र्मा रइसज़ादों को असली भारत की तस्वीर दिखाने वाले लेखक
प्रेमचन्द यानी विकास के और तरक़्क़ी के फाइली कागज़ी आंकड़ें प्रस्तुत करने वाली सरकारों को आइना दिखाकर उन्हें खुद उनकी ही नज़रों में गिरा देने वाले सत्यवादी साहित्यकार
फिल्मकार प्रेमचन्द......फिल्मकार?? जी हाँ !
लेकिन पर्दे वाली नही....क़लम वाली फ़िल्म,
वो ऐसे के जब आप उनको पढ़ें तो आपको ऐसा लगे कि वाक़ई अपने सामने देख रहे हैं प्रेमचन्द के ग्रामीण भारत यानि असली भारत को ।
प्रेमचन्द यानी असली किसान,
प्रेमचन्द यानी असली भारत,शानदार लेखक प्रेमचन्द.... अतुलनीय सहित्यकार प्रेमचन्द ।
प्रेमचन्द को लेकर एक किस्सा बड़ा मशहूर है ।
हुआ यूँ कि एक बार प्रेमचन्द महादेवी वर्मा से मिलने उनके आवास पर गए तो पता चला लेखिका महोदया अभी स्नानरत हैं।
सो मनमौजी प्रेमचन्द टहलते हुए उनके बगीचे में चले गए और महादेवी वर्मा के घरेलू नौकरों से बतियाने लगे।
कुछ ही देर में जब महादेवी नहाकर वापस आयीं और प्रेमचन्द को बगीचे में नौकरों के साथ बैठे देखा तो आश्चर्य मिश्रित शर्मिंदगी का भाव चेहरे पर लिए पूछ बैठीं,-
" अरे आप यहां क्या कर रहे हैं अंदर बैठना था आराम से"
तब प्रेमचन्द ने एक तारीखी जवाब दिया...
-""कुछ ख़ास नहीं बस अपनी कहानियों के किरदारों से बातचीत कर रहा था"
हमने इसे तारीखी जुमला क्यों कहा ये आपकी फ़िक्र के हवाले... लेखकों की जीवनियां पढ़िए और सोचिये इस तारीखी जुमले के अदाकर्दा साहित्यकार और दूसरे लिखने वालों में क्या फर्क है
महादेवी मुस्कुरा भर दी थीं...
कितने लेखक होते होंगे जो सिर्फ किताबों में लिख देने के बजाए अपने उन किरदारों के पास भी जाते होंगे?उनसे बातचीत भी करते होंगे...
प्रेमचन्द का सादा जीवन, सस्ते कपड़े, फ़टे हुए मोज़े...
(बाद में उनके बैंक खाते से निकली राशि पर फूहड़ किस्म के विवाद को परे रखकर)....बहरहाल उनके कहानियों के किरदारों और उनके बीच एक वास्तविक सा लगने वाला संबंध स्थापित करते हैं ।
वास्तविक यानी ग्रामीण भारत की असल तस्वीर प्रस्तुत करने वाले और उसकेशोषण की सर्वाधिक जीवंत व्यवहारिक और वास्तविक तस्वीर प्रस्तुत करने वाले प्रेमचन्द कि आज जन्मतिथि है....
मेरी ओर से उन्हें ये उनके क़दमों की धुल से भी छोटी भावभीनी श्रद्धांजलि और इंक़लाबी सलाम ।
~इमरान~
मन्टो पर बहस हो सकती है, चिरकीन पर नहीं,
मामला दरअसल ये है की मंटो जहाँ रूह को झिंझोड़ते हुए समाज को एक तल्ख़ आइना दिखाते हैं वहीँ चिरकीन पेट को गुड़गुड़ा कर बैतुलखला का रास्ता दिखा देते हैं।
मंटो को पढ़ने से जहाँ मन हक़ीक़त की खुशबु से लबरेज़ हो उठता है वहीँ चिरकीन को पढ़ने से मन की खुशबु खत्म होकर इश्क़ की अलग खोजी गयी बदबू में तब्दील हो जाया करती है, जी हाँ,इश्क़ में बदबू भी होती है बक़ौल चिरकीन।
मिसाल के तौर पर,मंटो कहते हैं -"अगर आपको मेरी कहानियां नाक़ाबिल ए बर्दाश्त लगती हैं तो इसका मतलब आपका ये ज़माना नाकाबिल ए बर्दाश्त है,
यानि मंटो स्पष्ट बताते नज़र आते हैं की उनके अफ़साने समाज की हकीकत से आपको साथ बेदर्दी के आशना करते हैं ।
आपमें सच सुनने और झेलने की हिम्मत हो तो ही मंटो की किताब उठायें वरना अलमारी की खूबसूरती बढ़ाने दें उसे, क्या फायदा एक मर चुके इंसान को आपका जड़बुद्धि ज़ेहन और गलियों से नवाज़े ।
रही बात चिरकीन की तो उनके पढ़ने लिए आपको शेर का जिगर चाहिए.... और जी मितलाना और उबकाई आना जैसे मर्ज़ अगर आपकी नियति हैं तो फिर चिरकीन आपके लिए नहीं....वो कैसे?
लीजिए पढ़ लिए चिरकीन मियां को भी एक बार,मानसिक विक्षिप्त तो ज़रूर रहा ये बन्दा लेकिन प्रतिभा का धनी भी था,उसने अपनी प्रतिभा को कहाँ और किन हल्क़ों में खर्च किया ये एक अलग बहस का मौज़ू हो सकता है ।
बहरहाल,उन तमाम बहस ओ मुबाहिसा से अलग, ज़ेर ए खिदमत है जनाब चिरकीन साहब का एक जिगरअफ़सुर्दा कलाम, (एक महज़ इसलिए कि उससे ज़्यादा आप बर्दाश्त ना कर सकेँगे ।
" तूने आना जो वहां गुंचा दहन छोड़ दिया,
गुल पे पेशाब किया हमने चमन छोड़ दिया,
इतर की बू से मुअत्तर हुआ बुलबुल का दिमाग
गूज़ जो तूने अये गुंचा दहन छोड़ दिया"
*ग़ुज़ (farting)
तो देखा आपने, क्यों मन्टो के अलावा चिरकीन का ज़िक्र नही होता , और क्यों ये एक विक्षिप्त मानसिकता का लेकिंन गज़ब का प्रतिभाशाली शायर तहज़ीबदारों की बज़्म से कहीं गायब सा हो गया....;)
चिरकीन साहब पर आगे फिर कभी.....आगे कब? यह नहीं बताएंगे।
~इमरान~
अनुभव अपने आप में एक शोध होता है, अनुभव एक ऐसा कागज़ है जिसपर आपकी गलतियों से साथ साथ उनका निवारण और पश्चाताप भी लिखा रहता है।
लिखने से याद आया,आप अक्सर जज़्बात में किसी ख़ास के लिये लिखना शुरू करते हैं,अपने लफ्ज़ किसी के नाम कर दिया करते हैं ।
आपके लेखों में होने वाले सभी ज़िक्र और तज़किरे किस एक बुत से मानूस हो जाया करते हैं और फिर उनमें निरंतरता शुरू हो जाती है ।
लेकिन इस निरंतरता और परिवर्तनशीलता में एक मामूली सा फर्क होता है, निरंतरता वहीँ अपनी जगह रुकी रहती है जबकि परिवर्तनशीलता का कोई ठौर नही ठिकाना नहीं ।
आज किसी को आपके लफ्ज़ पसंद आते हैं, कल को कोई बेहतर लिखने वाला आ जाता है...
आपकी किसी के लिए लिखने की निरन्तरशीलता तो वहीँ धरी की धरि रह जाती है लेकिन परिवर्तनशीलता निष्ठुरता से आपकी मौलिकता को ठोकर मारके आगे बढ़ जाया करती है... आप धरे लिए बैठे रह जाइये अपनी निरन्तरता ।
कहते हैं परिवर्तन संसार का नियम होता है,जिसे आपने हर हाल स्वीकार करना ही करना होता है.....लेकिन वो इमरान रिज़वी ही क्या जो नियमों से हार जाए या आत्मसमर्पण कर जाए ।
तो भईया...:आपकी इस परिवर्तनशीलता से प्यारी हमको हमारी मौलिकता और निरंतरता है ।
हाँ अगर कभी लगा की आपका कोई वांछित या अवांछित बदलाव हमारे हम दोनों के वास्तविक हितों के लिए ज़रूरी हो चला है फिर देखा जायेगा...तब तक...आप हमें पढ़ें,न पढ़ें...वो आपकी मर्ज़ी..
वैसे भी ऊपर कह चुका हूँ....दुनिया में काफी अच्छे लेखक मौजूद हैं,रुजू कीजिए,खुश रहिए,हम तो न बदलेंगे ।