ज़िन्दगी जीना चाहती है,
वो तुमसे फ़क़त आजादी चाहती है,
जमाने की पाबंदियों से नाखुश सी,
दबी सहमी सी नाज़ुक कली,
गुलशन में हंस के खिलना चाहती है,
नहीं मंज़ूर उसे तुम्हारी बंदिशें,
ये मज़हब के चोगे,ये दाढ़ी की चुभन,
उतार फेंके ये ज़बरदस्ती का हिजाब,
बचपन में बियाहे जाने का अज़ाब,
खुल कर सांस लेने की चाहत,
जवानी लग्ज़िशें आजमाना चाहती है,
वो तुमसे फ़क़त आज़ादी चाहती है,
उसे क्यों डर के जीना पड़े,
सात पर्दों में क्यूकर घुटना पड़े,
बचपन भी अपना क्यूँ खोना पड़े,
बस तुम्हारे इस मज़हब की खातिर
उसे क्यों जमाने से दबना पड़े,
निकल के बाहर खुली हवा में,
सांस लेना वो भी चाहती है,
वो तुमसे फ़क़त आज़ादी चाहती है.....
~इमरान~
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