गुरुवार, 30 अक्टूबर 2014

एक किस्सा जोश मलिहाबादी का

शब्बीर हसन खां उर्फ़ जोश मलिहाबादी लखनऊ से कुछ दूरी पर स्थित मलिहाबाद नामी जगह पैदा हुए थे,जोश अपने समय के एक बेहतरीन शायर और सामाजिक विचारक थे,
एक बार जोश ने कर्बला के शहीदों के ऊपर एक मर्सिया लिखा,इस मर्सिये को अवाम में काफी मकबूलियत हासिल हुई,लेकिन जोश ने अपने इस कलाम में मौलवियों और कुछ धर्म के व्यापारियों पर तीखे कटाक्ष भी कसे थे,जिससे धूर्त मौलवियों का एक वर्ग उनसे काफी नाराज़ हो गया और उनका तगड़ा विरोध करना शुरू कर दिया,इसके कारण जोश को एक दो जगह वो मर्सिया पढ़ने से रोका गया,यहाँ तक की कुछ लोगों ने तो उन्हें अपने घरों में बुलाना तक तर्क कर दिया,जोश इससे ज़रा भी विचलित नहीं हुए और अपने कलाम पर अडिग रहे,
एक बार की बात है लखनऊ के एक नामी घराने में साहिब ए खाना ने जोश को वही मर्सिया पढने के लिए आमंत्रित किया,जब ये खबर विरोधी तबके मिली तो उन्हें मिर्चें लग गयीं लेकिन वो कर कुछ न सके,इसी तरह मामला चलता रहा की एक दिन बिल आखिर विरोधी तबके के लोगों में से एक गिरोह जोश की शिकायत लेकर तत्कालीन सर्वोच्च शिया धर्मगुरु अयातुल्लाह नासिर हुसैन अबाक़ती की खिदमत में हाज़िर हुआ और जोश के खिलाफ मौलाना साहब के कान जितने भरे जा सकते थे भरे गए,
जब खूब नमक मिर्च लगा कर ये गिरोह जोश की शिकायत कर चुका तो मौलाना ने अपने एक खादिम को बुलाया और उससे कहा की जाकर जोश से कहो अपना वो मर्सिया लेकर फ़ौरन मेरे पास आयें,
खादिम जब ये खबर लेकर जोश के पास पंहुचा तो वो नहा धो कर अपने घर से बाहर कहीं निकल रहे थे,खादिम ने कहा की जल्द अपना वो मर्सिया लेकर चलिए आपको जनाब ने फ़ौरन याद किया है ,जोश घबराये और अन्दर से जाकर अपने मर्सिये के कागज़ लिए और खादिम के साथ चल पड़े,
वहां जाकर जब उन लोगों को मौजूद देखा तो जोश को सारा मामला समझते देर नही लगी, मौलाना साहब ने जोश को बैठने को कहा,इतनी देर में खादिम चाय नाश्ता वगैरह ले आया था,जब सब फारिग हो चुके तो मौलाना ने कहा,-
"मैंने सुना है की तुम्हारा वो मर्सिया अवाम में बड़ा मकबूलियत हासिल कर रहा है"
जोश खामोश रहे,
मौलाना ने आगे अपनी नमाज़ की चौकी की तरफ इशारा करके कहा-
"जाओ उस चौकी पर जा के बैठ जाओ और इमाम का वो मर्सिया कह सुनाओ"
जोश पहले तो हिचकिचाए लेकिन फिर मौलाना के इसरार पर जा के बैठ गए और मर्सिया सुनाने लगे,
उधर शिकायती तबके का मुंह उतर गया
लेकिन मौलाना थे कि पूरे वक़्त नम आँखे लिए गौर से मर्सिया सुनते रहे...
जब मर्सिया ख़त्म हुआ तो मौलाना ने जोश को अपने पास बुलाकर उनकी खूब तारीफ की और पीठ थपथपा कर उन्हें विदा कर दिया,
जोश के जाने के बाद मौलाना ने उन शिकायती लोगों की तरफ रुख किया,उनमे से एक आदमी ने उठ कर मौलाना से कहा,
-" "सरकार,वो (जोश) तो शराब भी पीते हैं,एक शराबी को आपने अपनी चौकी पर बैठा दिया?"

मौलाना ज़रा असहज हुए,फिर बुलंद अवाज में कुरान की वो आयत पढ़ी जिसका अनुवाद होता है -,

"हरगिज़ इबादत के करीब न जाना जबकि तुम नशे की हालत में हो"

इस आयत को पढने के बाद मौलाना ने समझाया -

"देखो भाई उसने मर्सिया तो बहुत उम्दा कहा है,और इबादत के करीब जाने से तो तब मना किया गया है जब इंसान नशे में हो,बेशक शराब एक बुरी आदत है लेकिन इसका मतलब ये थोड़ी हुआ की शराब पीने या कोई भी गलत काम करने वाले से उसकी इबादत और मज़हबी कामों को अंजाम देने का हक उससे छीन लिया जाये,कुरान में कहीं भी यह तो नही लिखा की शराबी या गुनाहगार को कभी इबादत ही न करने दी जाये!"

जोश के मर्सिये की तारीफ और यह बात सुनने के बाद शिकायती गिरोह कायल होकर खिसियानी हंसी हँसता हुआ मौलाना की दस्तबोसी कर के रुखसत हो लिया..

शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2014

दो रवायतें

लखनऊ की एक पॉश कॉलोनी (संभवतः गोमतीनगर या चंद्रलोक इंदिरानगर,मुझे स्पष्ट याद नहीं,) का एक दृश्य, कॉलोनी में एक घर के सामने खड़ी कार का दरवाज़ा खुला देख एक लड़का कार के नज़दीक आता है, थोड़ी देर तक सोचने के बाद लड़का उस घर के दरवाज़े पर लगी घंटी बजाता है जिसके सामने कार खड़ी होती है,घंटी की आवाज़ सुन के अन्दर से एक तीस पैंतीस साला आदमी बाजर निकलता है और लड़के से पूछता है-
"जी कौन साहब"?
"मैं आपके सामने वाले घर में रहता हूँ,मेरा नाम राहुल है,आपकी कार का लॉक खुला रह गया है तो मैंने सोचा बता दूँ"
"ओह्ह! शुक्रिया, मैं भूल गया होऊंगा,अभी लॉक करता हूँ,

दूसरा दृश्य-
आजमगढ़ से सटे एक गाँव की तस्वीर ,एक लड़का लगभग दस/ग्यारह बजे रात को दूकान बंद कर के घर वापस जा रहा है,घर से कुछ दूर पहले एक बाइक खड़ी देखता है,चूंकि वो गली इतनी  पतली है की अपनी गाडी निकलने के लिए लड़के को उतर कर पहले से खड़ी मोटरसाइकिल को उतर कर किनारे करना पड़ता है, बाइक का हैंडल खुला देख लड़का वापस नहीं जाता,वहीँ से एक फोन मिलाता है,
काफी देर घंटी होते रहने पर कोई फोन नहीं उठाता तो लड़का खुद उस बाइक को खीचते हुए थोडा आगे एक पास के ही मकान तक ले जाता है,और बाहरी गेट खोल कर बेधड़क अन्दर घुसता जाता है, बाइक गेट के अन्दर खड़ी करके जोर जोर से आवाज़ लगाना शुरू करता है,सुषमाची !सुषमाची (सुषमा चाची जो जल्दी और जोर से चिल्लाने के कारण सुषमाची हो गयीं थीं) , बहरहाल आवाज़ सुनकर अन्दर से एक अधेड़ उम्र की महिला ऊपर ही छज्जे पर आती हैं-
"का हसन्ने,का हुआ?
"अरे असोकचा (अशोक चचा) आपन बाइकिया बाहरवें खड़ी करके भूल गए रहें,हम अन्दर लगा दिया है बताये दिओ"
" अच्छा बता देबे ऊँ अभी तो सोए हैं,,कैसा आज तू बड़ी देर बाद लौटेओ दुकनिया से"?
"हाँ उ आज काम जादा रहा न,अब चलत हैं हम,"
लड़का गेट वापस बंद करके बाहर आता है और अपनी बाइक उठा कर वापस अपने रस्ते चल देता है,

यह दो दृश्य कोई कोरी कल्पना नही बल्कि मेरी आँखों देखे दो दृश्य हैं,एक तेज़ी से मेट्रो शहर में परिवर्तित होते कभी तहजीब के गढ़ रहे लखनऊ के,जहाँ पैदाइश से लेकर बारहवीं कक्षा तक की पढ़ाई का मेरा जीवन बीता,और दूसरा मेरी बुआ के ससुराल जपटापुर के थोडा आगे आज़मगढ़ के नज़दीक पड़ने वाले किसी एक गाँव का दृश्य है, इन दो दृश्यों में दो अलग अलग भारत दीखते हैं जिन्हें वोह शख्स सबसे बेहतर समझ सकता है जिसने इन दोनों रूपों को नज़दीक से सिर्फ देखा नहीं जिया भी हो,एक तरफ अपने घर के सामने रहने वाले राहुल से "जी कौन साहब" पूछता एक पॉश इलाके का नागरिक है और दूसरी तरफ कई गलियों दूर रहने वाले अशोक चचा की बाइक का लॉक खुला देख उसे पहचान जानने वाला और खीच कर असोकचा के घर तक पहुचाने वाला हसन्ने है ,भले से इन गांवो में आपसी पट्टीदारी की कितनी ही लड़ाई हो,लेकिन वक़्त ज़रूरत पर काम भी सब एक दुसरे के आते हैं और खूब आते हैं,मस्त होता है गांव,एकदम लकड़ी के चूल्हे से उतरी ताज़ी ताज़ी रोटी की तरह :)

किसी शायर का एक शेर याद आया-,

"तुम्हारे शहर में मय्यत को सब कान्धा नहीं देते,
हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिल के उठाते हैं"